गाँधी को संग्रहालय में बंद करने का षड़्यंत्र


महात्मा गाँधी की स्मृतियों को सँजोना एक राष्ट्रीय दायित्व है और अगर केंद्र या किसी राज्य की सरकार इस दिशा में कुछ करती है तो उसका स्वागत होना चाहिए। ये काम यदि गुजरात की सरकार कर रही है तब तो और भी, क्योंकि महात्मा गाँधी के जीवन का पारंभिक हिस्सा वहीं बीता था। ये काम वही कर सकती है और उसे करना भी चाहिए। लेकिन यदि ऐसा करते वक़्त उसकी कोई लाचारी-मजबूरी दिखे या उसमें किसी तरह की संकुचित राजनीति काम करे तो इसे बेहद दुखद कहा जाएगा।

Gandhi in the museum deshkaal
Conspiracy to locked Gandhi in the museum


दरअसल, मुद्दा उस प्रायमरी स्कूल का है जिसमें गाँधी जी ने प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त की थी। गुजरात सरकार ने उस स्कूल को संग्रहालय में तब्दील करने का फ़ैसला किया है। उसका ये निर्णय विवादों से घिर गया है, क्योंकि  इस क़दम को उठाने के पीछे तर्क ये दिया जा रहा है कि इस स्कूल के छात्रों का परीक्षाफल लगातार खराब आ रहा था और अब वह शून्य तक जा पहुँचा है। सरकार की मानें तो स्कूल शिक्षा देने में नाकाम साबित हो गया है इसलिए उसे चलाने का कोई औचित्य नहीं रह गया है। यानी स्कूल को संग्रहालय में बदलने की वजह गाँधी-प्रेम नहीं, बल्कि स्कूल की असफलता है। उसके इस निष्कर्ष से ये ज़ाहिर होता है कि गाँधीजी की स्मृति को सँजोने का काम वास्तव में किसी सदिच्छा से प्रेरित न होकर मजबूरी में शुरू किया जा रहा है।

अकसर बोलचाल में एक मुहावरा इस्तेमाल किया जाता है-मजबूरी का नाम महात्मा गाँधी। मुहावरा आपत्तिजनक है और महात्मा गाँधी के आदर्शों एवं योगदान को न समझ पाने की मानसिकता इसमें झलकती है। लेकिन गुजरात सरकार के रवैये को देखें तो उससे यही लगता है कि गाँधीजी उसके लिए मजबूरी का नाम हैं। ऐसा कहने का आधार ये है कि वह एक छोटे से प्रायमरी स्कूल में शिक्षा का स्तर सुधारने में नाक़ाम रही, बल्कि सही मायने में उसने उसके लिए प्रयास ही नहीं किए और विवशता दिखाते हुए आत्म-समर्पण कर दिया। यही नहीं, इससे गुजरात सरकार की शिक्षा के प्रति प्रतिबद्धता और इच्छाशक्ति का अभाव भी दिखता है। वर्ना क्या वजह है कि महात्मा की मृत्यु के उनहत्तर वर्ष बाद संग्रहालय बनाने का निर्णय इस तरह से ले लिया जाता?

होना तो ये चाहिए था कि उस प्रायमरी स्कूल को आदर्श स्कूल बनाने का संकल्प लिया जाता, उसे गाँधी के आदर्शों के मुताबिक चलाने की व्वस्था की जाती। इसकी संभावना बनाई जाती कि गाँधी जिस ढंग की अनौपचारिक शिक्षा की वकालत करते थे, उससे जुड़े प्रयोग यहां किए जाएँ। मगर सरकार में इतनी समझ नहीं थी, बल्कि ये कहना ज़्यादा उचित होगा कि उसका रवैया इस चुनौती को स्वीकारने के बजाय पल्ला झाड़ने का था। इसीलिए उसने आसान रास्ता चुन लिया। शायद उसे ये लोभ भी रहा होगा कि इससे उसे वाहवाही भी मिलेगी और गाँधी के संबंध में सत्तारूढ़ दल की नीयत को लेकर जो संदेह ज़ाहिर किए जाते हैं वे भी कम होंगे। यानी वह एक तीर से दो नहीं तीन-चार शिकार करने की फ़िराक़ में है।

वैसे समझने वाले समझ जाएंगे और वे यही निष्कर्ष निकालेंगे कि राज्य सरकार का ये फ़ैसला उपेक्षा से भरा हुआ है। ये उपेक्षा शिक्षा के प्रति तो है ही, गाँधी के प्रति भी है। इसमें किसी तरह का शक़-शुबहा नहीं होना चाहिए कि गुजरात सरकार गाँधी के विचारों को संग्रहालय में दफ़्न कर देना चाहती है। इसलिए ये मामला गाँधी के विचारों और कार्यक्रमों में निष्ठा का अभाव का ही नहीं है बल्कि उनके प्रति बैर भाव का भी है। ये किसी से छिपा नहीं है कि एक विचारधारा विशेष गाँधी को राजनीति के लिए इस्तेमाल तो करती है मगर उन्हें राजनीतिक-सामाजिक जीवन से बेदखल करने की कोई तिकड़म करना भी नहीं छोड़ती। गाँधी उसके लिए नारेबाज़ी, समारोहिक प्रदर्शनों और संग्रहालयों की वस्तु हैं, उनके विचारों को अपनाने तथा उन पर अमल करने की नहीं। ये सब जानते हैं कि अपने जीवनकाल में भी हिंदू राष्ट्रवादियों की राह में गाँधी ही सबसे बड़ी चुनौती बनकर खड़े थे और आज भी वे उनकी परेशानियों का सबब बने हुए हैं। राजनीतिक एवं वैचारिक परिदृश्य से उन्हें निष्कासित करने की वे खुली एवं प्रच्छन्न दोनों तरह की कोशिशें कर रहे हैं।

संग्रहालय बनाने का इरादा गाँधी के विचारों को पब्लिक स्फीयर से बाहर करने के षड़यंत्र का हिस्सा तो है ही मगर बुनियादी शिक्षा के मामले में सरकारों के उपेक्षात्मक रवैये के भी इसमें दर्शन होते हैं। ये एक निर्विवाद सत्य है कि प्राथमिक शिक्षा पर सरकारों का ध्यान नहीं है और अगर है भी तो राजनीतिक कारणों से। वे इन्हें राजनीतिक नर्सरी के रूप में इस्तेमाल करने में लगी हुई हैं। सरस्वती शिशु मंदिरों की श्रृंखला और बीजेपी शासित राज्यों के सरकारी स्कूलों का संघीकरण इसकी मिसाल है।

गुजरात जैसा विकसित प्रदेश जिसके विकास के कथित मॉडल का ढोल बहुत पीटा गया, शिक्षा के मामले में बहुत गंभीर नहीं रहा है। मानव विकास सूचकांक में उसकी स्थिति से इसका अंदाज़ा लगाया जा सकता है। राज्य और केंद्र सरकार के बजटों में शिक्षा को आवंटित की जाने वाली राशि भी इसी ओर संकेत करती है। ये गंभीरता पिछले कुछ वर्षों में तो और भी घटी है। दीनानाथ बतरा टाइप के नीम हकीम शिक्षाविद सरकार के आदर्श बन गए हैं और उनके बताए रास्ते पर वे शिक्षा का भविष्य तय कर रहे हैं। वैसे भी सहिष्णुता से बीजेपी को परहेज है और गाँधी पूरे जीवन उसी की वकालत करते रहे। ऐसे में गाँधी को संग्रहालयों में बंद कर देना ही उसके लिए मुफ़ीद था।

गाँधी को संग्रहालय में बंद करने का षड़्यंत्र
Conspiracy to locked Gandhi in the museum


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