मीडिया गणतंत्र के देवी-देवता


किसी चुनावी जुमले की तरह लोगों को ये रट गया है कि लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ज़रूरी होती है और उसका एकमात्र रखवाला कोई होता है तो मीडिया। उन्हें बताया गया है कि अगर मीडिया चुप हुआ तो लोकतंत्र भी गूँगा हो जाएगा। लेकिन उन्हें ये पता नहीं है कि अगर वे चौकन्ने न रहे तो मीडिया लोकतंत्र को गूँगा भी बना सकता है, बल्कि बना रहा है। उन्हें इस चीज़ का भी एहसास नहीं है  कि लोकतंत्र के मीडिया ने अपना लोकतंत्र बना लिया है, अपना ही गणतंत्र रच लिया है। उस मीडिया रिपब्लिक यानी मीडिया गणतंत्र में केवल वही बोलता है। और बोलता क्या है चीखता है। वह किसलिए चीखता है इस बारे में मीडिया गणतंत्र के नागरिक हमेशा संदेहग्रस्त रहते हैं। कभी उन्हें लगता है कि वह उनके लिए यानी ऑडिएंस के लिए चीख रहा है। कभी उन्हें महसूस होने लगता है कि नाम तो उसका लिया जा रहा है मगर चीखा किसी और के लिए जा रहा है। चीखने वालों को लेकर भी उनके मन में बहुत सारे संदेह पैदा हो चुके हैं। उन्हें लगता है कि गले तो उनके हैं मगर आवाज़ किसी और की आ रही है। वे दिखलाई कुछ और देते हैं, मगर होते कुछ और हैं। ये ठग, लुटेरे कुछ भी हो सकते हैं।
Goddess of the Media
Goddess of the Media Republic

ये बहुरूपिए ऊपर से तो गणतंत्र के पहरूआ जान पड़ते हैं, मगर उनका कार्य-व्यवहार ऐसा होता है मानो वे भाग्य-विधाता हों। उनका अंदाज़ ऐसा होता हैं मानो गणतंत्र को वही चला रहे हों। वे खुद को मीडिया रिपब्लिक ही नहीं रिपब्लिक का सर्वशक्तिमान नियंता मानते हैं और अपने अलावा किसी को कुछ नहीं समझते। वे किसी की नहीं सुनते और किसी को बोलने नहीं देते। वे चाहते हैं कि सब उन्हें ही सुनें, जो नहीं सुनते उनसे वे रिपब्लिक की नागरिकता छीन लेते हैं या कम से कम ऐसा करने की धमकियाँ देते रहते हैं। जो उनके द्वारा तय की गई लाइन से अलग हटकर बोलते हैं उन्हें वे देशद्रोही, अपराधी वगैरा घोषित कर देते हैं।




वे आत्ममुग्ध रहते हैं, अपनी ही छवियों पर लट्टू। उन्हें अपना चेहरा सुदर्शन लगता है, आवाज़ मधुर लगती है और अपने विचार सर्वश्रेष्ठ लगते हैं। वे खुद को सर्वाधिक साहसी, काबिल और देशभक्त मानते हैं जबकि दूसरे उन्हें मक्कार, धोखेबाज़, भ्रष्ट, बेईमान नज़र आते हैं। वे सबको फटकारते हैं, दुत्कारते हैं, उनका मज़ाक बनाते हैं और ऐसा करके खुद को महान समझने की भ्रांति पाल लेते हैं।

मीडिया रिपब्लिक में वे अपनी अदालतें लगाते हैं। वहाँ वे खुद ही मुकद्दमा चलाते हैं, दलीले देते हैं और खुद ही फ़ैसला सुना देते हैं। उनकी अदालतों में किसी और की सुनवाई नहीं होती और अगर उन्होंने एक बार किसी को कसूरवार ठहरा दिया तो फिर वह कसूरवार है। कोई उनके फ़ैसले पर सवाल नहीं कर सकता और अगर करेगा तो ये सहन नहीं किया जाएगा। वे कुछ लोगों को बरी भी कर देते हैं। किन्हें बरी करेंगे या किन्हें सज़ा सुनाएंगे ये पहले से तय रहता है और शुरू में ही इसका ऐलान भी कर दिया जाता है।
Goddess of the Media Republic

इस मामले में पूरी पारदर्शिता बरती जाती है, मगर यदि कोई फिर भी नहीं समझ पाता तो ये उसकी समस्या है। उसे अपना मानसिक परीक्षण करवाना चाहिए। और हाँ, मीडिया रिपब्लिक की इन दिव्य आत्माओं के मानसिक स्वास्थ्य के परीक्षण की माँग करना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर खुला हमला है, इसे वे जघन्य अपराध की श्रेणी में रखते हैं इसलिए बरखुरदार सावधान! भूलकर भी कुछ ऐसा किया तो गणतंत्र विरोधी घोषित करके सरे आम जुलूस निकाल दिया जाएगा। ऊपर से सत्यवादी दिखनेवाले ये लोग आला दर्ज़े के निर्लज्ज किस्म के चालबाज़ होते हैं और जब किसी की चापलूसी करने पर आते हैं तो अपनी तथाकथित निष्पक्षता को स्टूडियो की कुर्सी पर धँसे अपने नितंबों के नीचे रख देते हैं।



इस मीडिया गणतंत्र में केवल उन्हीं का स्वागत है जो उसके नियामकों को नायक मानते हैं। इससे कम उन्हें कुछ भी मंज़ूर नहीं है। वे चाहते हैं पूरा मुल्क उन्हें देवी-देवता माने और उनकी जय-जयकार करे।  उनको समस्या केवल एक ही जगह आती है......अपने आकाओं के समक्ष। वे अपने मालिकों के सामने वॉच डॉग से पेट डॉग बन जाते हैं। रीढ़ की हड्डी विलुप्त हो जाती है। वे उनके इशारों पर दुम हिलाते हैं, भौंकते और काटते हैं। मीडिया के इन गणदेवी-देवताओं को गण से कुछ भी लेना देना नहीं होता। अगर उनके बारे में कभी भूल से खयाल आ जाता है तो उसे दबा जाते हैं, क्योंकि मार्केट के हिसाब से चलना उनका सबसे बड़ा धर्म है।

मीडिया गणतंत्र के देवी देवता “उच्च-जातियों” के होते हैं, “उच्चकुल” के होते हैं। उनके मीडिया लोक में आदिवासियों. दलितों एवं पिछड़ों का स्वागत नहीं किया जाता, उन्हें देश निकाला दे दिया गया है। अल्पसंख्यक भी वफ़ादारी साबित करने के बाद ही इस परम पद को प्राप्त करने के योग्य बन पाते हैं। महाजनों का ये मीडिया लोक अपने जैसे लोगों के ही उद्धार के बारे में सोचता है, उनके हित-अहित को ध्यान में रखकर वाणी का इस्तेमाल करता है। दूसरी जातियों-वर्गों की भलाई की चर्चा उसे बर्दाश्त नहीं होती और अगर कोई करे तो वह कुपित होकर सबको भस्म करने में जुट जाता है।



इस मीडिया रिपब्लिक ने लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का झंडा उठाया हुआ है, क्योंकि वह अपनी स्वतंत्रता को ही इसका पर्याय मानता है। उसने लोकतंत्र की आवाज़ छीन ली है, उसे गूंगा बना दिया है। ऐसे में चारों तरफ से गुहार लग रही है कि कोई इसकी खुशफ़हमी दूर करे, उसके पागलपन का इलाज़ करवाए, उसे आईना तो दिखाए।
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