काँग्रेस ने सचमुच में मन बना लिया है या फिर ये वाटर टेस्टिंग भर थी?


विश्वास मत प्रस्ताव की बहस के दौरान राहुल गाँधी के प्रदर्शन से उत्साहित होकर काँग्रेस कार्यसमिति ने एक तरह से ऐलान किया था कि वह उनको भावी प्रधानमंत्री की तरह पेश करेगी। बल्कि भाव ये था कि वही प्रधानमंत्री होंगे। काँग्रेस का ये क़दम हैरत में डालने वाला था। वज़ह भी साफ़ थी कि काँग्रेस न तो अपने दम पर सरकार बनाने की स्थिति में आने वाली है और न ही राहुल गाँधी की स्वीकार्यता भी ऐसे मुकाम पर पहुँची है कि अब उनके लिए रास्ता साफ़ है।
Has the Congress really made up the mind or was it filled with water testing?


काँग्रेस की ये महत्वाकांक्षी योजना तुरंत फुस्स भी हो गई, क्योंकि एच डी देवेगौड़ा के अलावा कहीं से कोई सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं मिली। ये स्वाभाविक भी था क्योंकि साझा राजनीति के दौर में खेल खुला होता है और बहुत सारे लोग लाइन में लगे होते हैं। अगर राहुल गाँधी का क़द बड़ा होता तो बात और थी। तब तो समर्थक दल उन्हें वैसे ही स्वीकार कर लेते और पार्टी को इस तरह का ऐलान करने की जरूरत भी नहीं होती।

ये मानना समझदारी नहीं होगी कि काँग्रेस में मूर्खों की भरमार है और वे स्थिति का पर्याप्त आकलन किए बगैर ही राहुल की पालकी उठाने के लिए निकल पड़े होंगे। उन्होंने ज़रूर मापा-तौला होगा और बहुत संभव है कि हवा में गुब्बारा ये देखने के लिए छोड़ दिया होगा कि वह कितनी दूर तक जाता है। राजनीति में इस तरह के खेल बहुत खेले जाते हैं इसलिए ये कोई हैरत का सबब नहीं है।

लेकिन ये भी मुमकिन है कि चापलूसों ने सोनिया-राहुल को खुश करने के लिए कोई प्रस्ताव रखा हो और वह पास भी हो गया हो। अगर ऐसा है तब तो इसे हास्यास्पद ही कहा जा सकता है। यही नहीं, अपनी इस हरकत से उन्होंने पार्टी और राहुल गाँधी दोनो को लिए जगहँसाई की स्थिति बना दी, क्योंकि अभी जबकि दूर-दूर तक कुर्सी दिखलाई नहीं दे रही तो इस तरह की घोषणा करने का क्या मतलब है?

अगर काँग्रेस ने ये घोषणा इसलिए की कि इससे प्रधानमंत्री पद पर राहुल की दावेदारी मज़बूत हो, तब भी ये अकलमंदी वाली बात नहीं कही जा सकती। एक तो इसलिए कि पहले तो पार्टी को सहयोगी दलों से बात करनी चाहिए थी और हो सके तो उनकी सहमति भी लेनी चाहिए थी।




बेहतर तो ये होता कि ये बात काँग्रेस के बजाय सहयोगी दलों से कहलवाई जाती। उससे राहुल के पक्ष में माहौल बनता और उनकी राह आसान होती। मगर एकतरफा घोषणा से सहयोगी दलों को कष्ट होना लाज़िमी है और इसका नतीजा उनके नेतृत्व का विरोध करने में सामने आ सकता है।

हालाँकि ये सही है कि किसी ने विरोध नहीं किया, मगर  खामोशी का मतलब अगर हाँ होता है तो कई बार न भी होता है।  इस मामले में अन्य विपक्षी दलों की चुप्पी का मतलब न में ही निकाला जाना चाहिए। अगर ऐसा है तो काँग्रेस के गुब्बारे में पिन चुभ चुकी है।

कायदे से देखा जाए तो अभी काँग्रेस की रणनीति दूसरे दलों को साथ लेने की होनी चाहिए। ये चुनाव जीतने के लिए ज़रूरी है और सबसे बड़ा विपक्षी दल होने के नाते उसी को इसमें अगुआई भी करनी है। ऐसे में उसे अपने लक्ष्य से भटकना नहीं चाहिए।

हाँ, वह राहुल को प्रतिष्ठित करने का समानंतर अभियान भी चला सकती है मगर अघोषित तौर पर बगैर ये दिखाए कि ऐसा किया जा रहा है। इससे विपक्षी दलों को असुविधा नहीं होगी और वे राह में रोड़े बिछाने में नहीं जुटेंगे।

काँग्रेस ने सचमुच में मन बना लिया है या फिर ये वाटर टेस्टिंग भर थी?
Written by सिद्धनाथ चर्मकार


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