पद्मावती के निर्माता-निर्देशक संजय लीला भंसाली की समझ में नहीं आ रहा कि वे हँसें या रोएं। जहां उन्हें थप्पड़ खाने का ग़म है वहीं वे फिल्म को मुफ़्त में मिल रही पब्लिसिटी से गदगद हैं। आजकल फिल्म की मार्केटिंग पर जितना खर्च होता है उतना उसके निर्माण में नहीं इसीलिए हर निर्माता-निर्देशक चाहता है कि बस उसे कोई एक थप्पड़ मार दे और मीडिया उसे दिन-रात प्रचारित कर दे। अलबत्ता थप्पड़ खाने के बाद से भंसाली का हाथ बार-बार गाल पर चला जाता है और सहलाने लगता है। ज़ाहिर है कि वे अपमान की आग से सुलगने भी लगते हैं। मगर उनके सामने कोई चारा भी नहीं है। उन्हें फिल्म पूरी करके पैसे बनाने हैं इसलिए उन्होंने कर्णी सभा से तालमेल बैठा लिया है। वे उनकी तथाकथित आहत भावनाओं का खयाल रखेंगे। समझौतापरस्त कलाकारों, लेखकों और फिल्मकारों का यही है कि वे थोड़ा सा दबाव पड़ते ही घुटनों पर गिर जाते हैं। अपना पैसा बचाने के लिए वे अपना ताज तथा लाज कीचड़ में फेंकने के लिए तैयार हो जाते हैं।
मैं जब उनके एनकाउंटर के लिए पहुँचा तो वे एक-दो पैग ले चुके थे मगर तनाव था कि उनके माथे की रेखाओं में तना हुआ था। बीच-बीच में कर्णी सभा के प्रति अपने उच्च कोटि के उद्गार सार्वजनिक कर रहे थे। अगर वे ये काम राजस्थान में कर रहे होते और कर्णी सभा का कोई मेंबर होता तो बावेला मचा देता। लेकिन सुदूर मुंबई में वे सुरक्षित थे और निश्चिंत भी। मुझे देखते ही उनका हाथ गाल पर गया और फिर वही हाथ उन्होंने मेरी ओर बढ़ा दिया। हाथ मिलाया तो लगा कि हथेली का तापमान सामान्य तापमान से अधिक है। मैं समझ गया कि थप्पड़ की गूँज उनके कानों से अभी गई नहीं है। ख़ैर मुझे क्या करना था इस सबसे। मैं तो एनकाउंटर करने आया था और वह मैंने ग्लास से एक घूँट भरने के साथ ही शुरू कर दिया।
भंसालीजी, ये आपने क्या किया? गुंडों के सामने सरेंडर कर दिया?
सरेंडर न करता तो क्या करता? अपनी फिल्म डुबा देता या थप्पड़ खाता रहता?
अरे एकाध थप्पड़ पड़ गया तो क्या हो गया? आपसे लोगों को उम्मीद थी कि आप कला एवं कलाकार की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए खड़े होंगे, मगर आप तो फ़ौरन ही बैठ गए?
अगर थप्पड़ आपके गाल पर पड़ा होता न तो आप भी वही करते जो मैंने किया। ये कहना आसान है कि अपनी स्वतंत्रता के लिए, अपने हक़ के लिए लड़ना चाहिए, मगर लोग अपेक्षा हमेशा दूसरों से करते हैं, खुद सरेंडर करने में एक मिनट नहीं लगाते। पिछले बीस-तीस साल से देख रहा हूँ। एक से एक बड़े अभिनेता, निर्माता-निर्देशक गुंडों के सामने समर्पण किया है और मैंने ये अपनी आँखों से देखा है। अभी कुछ महीने पहले ही तो करन जौहर नतमस्तक हो गए थे शिवसेना के सामने। उसने तो कुछ किया ही नहीं था, मगर गुंडे पीछे पड़ गए और सरकार उनके साथ खड़ी हो गई। मेरे मामले में भी यही हो रहा है। कर्णी सभा के साथ वहाँ की सरकार खड़ी है। केंद्र सरकार चुप है, ऐसे में कोई कलाकार या बिजनेसमैन क्या कर लेगा भला।
बहुत से लोग फिर भी लड़ रहे हैं। अनुराग कश्यप को देख लीजिए?
अनुराग जैसा दिल मेरे पास नहीं है भाई। मैं ट्रोल के साथ नहीं भिड़ सकता। मैं मोदीजी से पंगा नहीं लेना चाहता, क्या पता कब छापे डलवाकर अंदर करवा दें। मैं तो इतना जानता हूँ कि जाहिलों से थप्पड़ खाने से बेहतर है समझौता करना। कम से कम फिल्म तो बना सकूँगा और हो सकता है कि अब वह हिट भी हो जाए।
देखिए, आप लोगों का यही समझौतावादी रवैया है जिसकी वजह से गुंडों के हौंसले बढ़ते जाते हैं और वे न केवल आप लोगों के साथ मार-पीट करते हैं बल्कि आप लोगों पर दबाव बनाकर अपनी बातें मनवाने में कामयाब भी हो जाते हैं?
आप समझने की कोशिश कीजिए कि ये लोग संगठित हैं और इन्हें सरकारों एवं प्रशासन का समर्थन एवं सरक्षण प्राप्त है इसलिए एक आदमी कुछ नहीं कर सकता।
क्यों आप लोग भी तो संगठित हैं? आपकी एसोसिएशन है, आप लोग आवाज़ उठा सकते हैं?
आवाज़ लोकतंत्र में उठाई जाती है और तब उठाई जाती है जब सुने जाने की उम्मीद हो। यहाँ तो ये गुंडे सरकार के हैं और गुंडों की सरकारें हैं। ऐसे में आप किसके सामने गुहार लगाएंगे, किसके सामने दुखड़ा रोएंगे और किससे मदद की उम्मीद करेंगे? और आपको तो पता है कि ये लोग हत्याएं तक कर देते हैं। कलबुर्गी, दाभोलकर आदि को आप भूले तो नहीं होंगे।
जब इतना ही डर है तो ऐसे विवादास्पद विषय ही क्यों लेते हैं?
अरे मैंने कहाँ कोई विवादास्पद विषय लिया है। पद्मावती की कहानी मज़ेदार लगी, तो उठा ली। लेकिन है तो वह कहानी ही न। मुझे क्या पता था कि ये जाहिल एक काल्पनिक कहानी पर ही मरने-मारने पर उतर जाएंगे। आपको तो पता होगा कि ये कोई सच्ची घटना तो है नहीं। अलाउद्दीन खिलजी के मरने के 200 साल बाद सूफी कवि मलिक मोहम्मद जायसी ने पद्मावत लिखी थी। आप पढ़ेंगे तो समझ में आएगा कि किस तरह कवि ने कल्पना की है कि हीरामन नाम का तोता रतन सिंह के सामने पद्मावती के रूप-गुणों का वर्णन करके प्रेम पैदा करता है। पद्मावती भी कोई राजपूताना नहीं बल्कि सिंहल देश की राजकुमारी थी। अब पता नहीं इन मुच्छड़ों को किसने कह दिया कि पद्मावती राजपूत थी।
लेकिन क्या ये सच है कि आपने फिल्म में अलाउद्दीन खिलजी तथा पद्मावती के कुछ इंटीमेट सीन डाल रखे हैं?
मुझे याद नहीं है, मगर यदि थे भी तो बुराई क्या है? अरे भाई जाने कितनी अभिनेत्रियाँ है जिन्हें चाहने वालों की संख्या हज़ारों नहीं लाखो में है। वे उनके साथ सपनों में जाने क्या-क्या करते हैं। इसी तरह अगर पद्मावती को चाहने वाले भी उसके साथ इश्क लड़ाने के सपने देखते थे तो इसमें अचरच की क्या बात है?
तो आपकी फिल्म में ये सीन थे?
थे या नहीं थे मैं ये बात नहीं कर रहा हूँ। मैं ये कह रहा हूँ कि अगर थे तो ग़लत नहीं थे।
लेकिन क्या ये सच नहीं है कि टीवी और फिल्म वाले इतिहास को तोड़ते-मरोड़ते हैं ताकि बॉक्स ऑफिस पर फिल्म कामयाब हो जाए?
हाँ, करते हैं, मगर सब नहीं। कुछ लोग इतिहास का सम्मान करते हैं और उसे उस रूप में पेश करने की कोशिश भी करते हैं जैसे कि वह रहा होगा। लेकिन ये बात भी आपको ध्यान में रखनी चाहिए कि कोई ज़रूरी नहीं है कि आप जिसे इतिहास मान रहे हों वही सच्चा इतिहास हो। स्थिति इसके ठीक विपरीत भी हो सकती है। ये तो ठीक नहीं कि आपने एक तरह की धारणा बना ली और उसे इतिहास बताने लगे। इस समय इतिहास संबंधी जो मुठभेड़ें हो रही हैं, वे इसी वजह से। सब अपना-अपना इतिहास लेकर घूम रहे हैं, मगर उनके पास न तो सही इतिहास को जानने की इच्छा है और न ही उसे समझने की बुद्धि। इसीलिए वे ताक़त का इस्तेमाल करते हैं जो कि लोकतंत्र विरोधी है और कला विरोधी तो है ही।
तो अब आपकी फिल्म में वही इतिहास होगा जो कर्णी सभा चाहती है?
काफी हद तक आप सही कह रहे हैं।
और आपने अपनी पिछली फिल्मों में भी वही इतिहास फिल्माया जो दूसरे चाहते थे। आपने सच्चे इतिहास को मखौल बना दिया?
मरता क्या न करता। मेरी मजबूरी समझिए। मैं सबसे लड़कर सरवाइव नही कर सकता।
कोई ज़रूरी है कि ऐतिहासिक विषयों पर ही फिल्म बनाई जाए? खास तौर पर तब जबकि सच्चा इतिहास दिखलाने की गुंज़ाइश ही न बचे। आप दूसरे विषय भी ले सकते हैं। मसलन, आपने ब्लैक बनाई थी। लोगों ने पसंद भी की थी।
लेकिन उसने उतना बिजनेस नहीं किया था न।
तो ऐसा बोलिए न कि आप कलाकार नहीं धंधेबाज़ हैं?
मैं धंधेबाज़ कलाकार हूँ। मैं कला के लिए धंधा करता हूँ या यूँ कह लीजिए कि कला के जरिए धंधा करता हूँ।
तब ठीक है। अगर आप ये सचाई कबूल करते हैं तब तो आपको वही करना था जो आपने किया। लेकिन अब ये ज़िद मत कीजिएगा कि आपको कलाकार कहा जाए?
अरे आप तो सीरियस हो गए। ऐसा ज़ुल्म मत कीजिएगा। मेरा कहा-सुना माफ़ कीजिए।
अब तो ये प्रेस में जाएगा?
मेरे लिए तो दोनों तरफ मरण है। न झुको तो थप्पड़ खाओ और झुको तो बिरादरी से बाहर हो जाओ। क्या समय आ गया है? ऐसे में हम जैसों का गुज़ारा कैसे होगा?
आपने ठीक कहा, समय ऐसा आ गया है जब दोगलापन नहीं चलेगा। या तो धंधा कर लो या फिर कलाकारी। दोनों हाथों में लड्डू रखने के दिन गए। अब बताइए इस समय के बारे में क्या राय है?
मेरे इस प्रश्न पर भंसाली को जैसे साँप सूँघ गया। वे खामोश हो गए और बहुत देर तक खामोश बैठे रहे। मैं समझ गया कि अब वह नहीं बोलेंगे। एक बार जिसे मुनाफ़े की लत लग जाती है वह फिर कलाकार की तरह बोलने का दम नहीं रखता। लिहाज़ा, मैंने उन्हें उनके हाल पर छोड़ा और देश के हाल पर तरस खाता हुआ चला आया।
Written by-डॉ. मुकेश कुमार
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वैधानिक चेतावनी - ये व्यंग्यात्मक शैली में लिखा गया काल्पनिक इंटरव्यू है। कृपया इसे इसी नज़रिए से पढ़ें।