सुष्मा स्वराज पर कोई तरस भी खाए तो क्यों?


तन्वी सेठ पासपोर्ट कांड के बाद हिंदुत्ववादियों की ओर से हुए हमलों को लेकर एक तबके में गुस्सा है तो एक ऐसा भी वर्ग है जिसके मन में सुष्मा स्वराज के प्रति हमदर्दी उमड़ आई है। इस दूसरे वर्ग में कुछ तो इसलिए दुखी हो रहे हैं कि एक महिला के प्रति इस तरह का व्यवहार किया जा रहा है।

अगर मामला महिला भर का होता तो हम भी सहानुभूति प्रकट करने वालों की कतार में खड़े हो जाते। लेकिन वास्तव में ऐसा है नहीं। सुष्मा इस लायक नहीं हैं कि उन्हें इस आधार पर भी कोई रियायत दी जाए, क्योंकि वे दूसरी महिलाओं के साथ जब ऐसा हुआ तो वे कुछ बोली नहीं।

Why one should have sympathy with Sushma Swaraj?


दूसरे, उनके बारे में गंदी टिप्पणियाँ करने वाले विरोधी नहीं बल्कि उनके अपने राजनीतिक परिवार के ही लोग थे यानी उन्हीं के पाले-पोसे नारी विरोधी, ब्राम्हणवादी मानसिकता वाले लोग। सुष्मा अपनी राजनीति के लिए इस फौज का प्रत्यक्ष नहीं तो परोक्ष तौर पर इस्तेमाल करती रही हैं।




उनकी पार्टी और संघ परिवार में ऐसे लोगों की भरमार है, मगर कभी उन्होंने इनके विरूद्ध आवाज़ उठाने की ज़हमत नहीं उठाई। ये भी दिलचस्प बात है कि सुष्मा स्वराज के बचाव में न प्रधानमंत्री ने अपना श्रीमुख खोला और न ही पार्टी अध्यक्ष ने इसकी निंदा-भर्त्सना की। उनके मंत्रिमंडलीय सहयोगियों का रवैया भी कमोबेश यही रहा।

कहीं ये भी सुनने-पढ़ने में नहीं आया कि घटिया टिप्पणी करने वालों पर किसी तरह की कार्रवाई की गई हो। अगर ऐसा ही कुछ किसी ने प्रधानमंत्री के ख़िलाफ़ कहा होता तो उसे तो हत्या की साज़िश रखने के आरोप में ही धर लिया जाता। कितने शर्म की बात है कि आखिरकार उनके पति स्वराज कौशल को बयान जारी करने के लिए बाध्य होना पड़ता है। हालाँकि तब भी भाजपा के शीर्ष नेताओं को शर्म नहीं आई।




लिहाजा सुष्मा स्वराज इस आधार पर सहानुभूति और समर्थन प्राप्त करने की पात्रता नहीं रखतीं कि वे महिला हैं और उनके ख़िलाफ़ महिला विरोधी टिप्पणियाँ की जा रही हैं। उन्हें महिला वाली रियायतें नहीं मिल सकतीं। ख़ास तौर पर इसलिए भी कि वे एक बड़े पद पर बैठी हैं और उन्हें अपनी तरफ से मोर्चा लेना चाहिए। कहने को उन्होंने ऐसा किया भी मगर बहुत ही लचर ढंग से।

वैसे कुछ हमदर्द उजड़े हुए समाजवादी भी हैं, जिन्हें लगता है कि सुष्मा दिल से अभी भी समाजवादी हैं और उनकी रक्षा की जानी चाहिए। वे उनके अतीत के कथित कारनामों का हवाला देना भी नहीं भूलते, हालाँकि सुष्मा स्वराज उन्हें शायद ही कभी याद करती होंगीं। कुछ उन्हें नरम हिंदुत्व वाला मानते हैं इसलिए उनके प्रति नरम कोना रखते हैं।

मगर ये उनकी खुशफ़हमी ही है। वे उसी सांप्रदायिक राजनीति की पालकी ढो रही हैं जिसने पूरे मुल्क को अंदर ही अंदर बाँटकर रख दिया है। उन्हें इस भ्रम से और इस मोह से निकलने की ज़रूरत है। उन्हें ये नहीं भूलना चाहिए कि वास्तव में सुष्मा स्वराज एक अवसरवादी नेता हैं और विदेश मंत्री होने के बावजूद उनकी कोई हैसियत,, कोई वजूद नहीं है। सब कुछ मोदी और उनका दफ़्तर तय कर रहा है। सुष्मा केवल पासपोर्ट बनवाती हैं या विदेशों में फँसे भारतीयों की मदद करने में लगी रहती हैं।

हिंदुत्ववादी ट्रोल से पिटवाना भी मोदी-शाह की रणनीति का हिस्सा हो सकता है। वे नहीं चाहते कि कोई भी प्रतिद्वाद्वी मैदान में रहे। इसीलिए कहा जा रहा है कि सुष्मा के बाद राजनाथ और गडकरी जैसे नेताओं को भी निपटाया जाएगा।

सुष्मा स्वराज पर कोई तरस भी खाए तो क्यों?
Why one should have sympathy with Sushma Swaraj?

Written by दीपक संधु


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