भयानक नतीजे होंगे ग्लोबल वार्मिंग से हो रहे जलवायु परिवर्तन के


वैज्ञानिकों का कहना है कि वैश्विक-तापमान में वृद्धि के कारण भविष्य की पृथ्वी अनुमान से कहीं ज़्यादा गर्म हो सकती है। ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन होने से वैश्विक-तापमान में वृद्धि न सिर्फ उत्सर्जन के आकार, बल्कि वातावरण में मौजूद अतिरिक्त गैस के प्रभाव पर भी निर्भर करती है। इस प्रभाव को साधारण भाषा में जलवायु-संवेदनशीलता कहते हैं। जिसे आमतौर पर वातावरण में कॉर्बन डाई-ऑक्साइड की मात्रा दो गुनी हो जाने के कारण, तापमान-वृद्धि के तौर पर परिभाषित किया जाता है।

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जलवायु-संवेदनशीलता, पृथ्वी की जलवायु प्रणाली से संबंधित कई संपदाओं पर निर्भर करती है। चिली स्थित ‘यूनिवर्सिटी ऑफ मैगलानेस’ के प्रोफेसर गैरी शैफर के मुताबिक ‘जलवायु-संवेदनशीलता संदर्भित शोध-अध्ययनों से पता चलता है कि यह जलवायु-संवेदनशीलता,  मौज़ूदा समय के मुकाबले, पिछली बार की वैश्विक-तापमान-वृद्धि के दौरान ज़्यादा थी। समस्त मानवता के लिए यह एक बेहद बुरी ख़बर है कि जलवायु-संवेदनशीलता होने से तापमान-वृद्धि तेज़ होगी।



उपरोक्त जलवायु-संवेदनशीलता संदर्भित अध्ययन तकरीबन 5.6 करोड़ बरस पहले हुई वैश्विक-तापमान वृद्धि-दौर की स्थिति के आधार पर किया गया है। उक्त कालखंड से पहले वैश्विक-तापमान 4.5 सेल्सियस था, जो उक्त कालखंड के दौरान तकरीबन 5.1 सेल्सियस तक बढ़ गया, परन्तु मौज़ूदा समय में यह जलवायु-संवेदनशीलता तकरीबन तीन डिग्री सेल्सियस है।

पिछले बरस पेरिस जलवायु सम्मेलन में दुनिया के तमाम देशों ने एक साझा लक्ष्य सुनिश्चित किया था कि वे वैश्विक-तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस पर सीमित रखने की कोशिश करेंगे। इस समय यह संसार एक ख़तरनाक तापमान-स्तर के करीब चल रहा है, जो कि बेहद तेज़ रफ़्तार अखि़्तयार करते हुए तीन से चार डिग्री सेल्सियस तक की तापमान-वृद्धि दर्शा रहा है, अगर यह तापमान-वृद्धि इसी गति से बढ़ती रही तो यह संसार कदापि रहने लायक नहीं रह जाएगा। तब न दुनिया बचेगी, न मनुष्य और न मनुष्यता ही बच पाएगी, किन्तु पशु-पक्षियों का हश्र क्या होगा, कोई नहीं जानता ?

ग्लोबल वार्मिंग के कारण बढ़ती जानेवाली तापमान-वृद्धि हमारे लिए किसी भयानक तबाही और बर्बादी से ज़रा भी कम नहीं होगी। स्मरण रखा जा सकता है कि आर्कटिक की बर्फ अप्रत्याशित अथवा असामान्य मौसम के कुप्रभावों से हमारी सुरक्षा करती है, किन्तु आज के असंतुलित दौर में असामान्य मौसम के कुप्रभावों से हम अपेक्षाकृत अधिक जूझ रहे हैं। उन्नीसवीं सदी के मुकाबले आज यह पृथ्वी 1.3 डिग्री सेल्सियस अधिक गरम हो चुकी है, जिसका संक्षिप्त निष्कर्ष यही है कि वर्ष 2016 अबतक का सर्वाधिक गरम वर्ष साबित होने जा रहा है, जबकि जुलाई 2016 अब तक का सर्वाधिक गरम महीना साबित हो चुका है।



दुनिया भर के पर्यावरण-वैज्ञानिक जिस जलवायु-भयावहता का उल्लेख संकेतों और दबी ज़़ुबान से कर रहें हैं, उसकी तरफदारी में पीटर वदाम्स खुल्लमखुल्ला और जीदारी से अपना पक्ष रख रहे हैं। पीटर वदाम्स कहते हैं कि आर्कटिक महासागर में मौत का एक ऐसा कुचक्र बनता जा रहा है कि जहाँ आने वाले दिनों में बर्फ की तमाम परतें गरमी में पूरी तरह से पिघल जाएँगी और फिर ऐसा वातावरण चार-पाँच माह तक यथावत बना रहेगा। ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन, बल्कि अत्यधिक उत्सर्जन ही इसकी ख़ास वजह बनेगा। वर्ष 1970 सितम्बर में आर्कटिक महासागर कम से कम आठ मीटर बर्फ की परत से ढंका था, जो कि अब हर दशक में तेरह फीसदी की दर से पिघलते हुए मात्र 3.5 मीटर की परत ही रह गई है। पीटर वदाम्स, स्कॉट पोलर रिसर्च इंस्टीट्यूट के पूर्व निदेशक और कैंब्रिज में ओषन फिजिक्स के प्रोफेसर रह चुके हैं।

हिमालय में ग्लेशियरों का पिघलना कोई नई बात नहीं है। सदियों से ग्लेशियर पिघलकर नदियों के स्वरूप में लोगों को जीवन देते रहे हैं, लेकिन पिछले दो दशकों में इनके पिघलने की रफ़्तार में जो तेज़ी देखी गई है, वह चिंताजनक है। सौ बरस पहले तक स्थिति यही थी कि ग्लेशियर पिघलते थे, फिर भी इनका दायरा बरस-दर-बरस बढ़ रहा था। पिछले कई बरस से अध्ययन-रत बाडिया हिमालय भू-विज्ञान संस्थान के वैज्ञानिकों की एक रिपोर्ट बता रही है कि कश्मीर, हिमालय में कुछ ग्लेशियरों का आकार बढ़ रहा है। भारत, पाकिस्तान, चीन और अफगानिस्तान तक फैली काराकोरम पर्वत श्रृंखला स्थित तकरीबन दस छोटे और मध्यम आकार के ग्लेशियर 50 से 100 मीटर की अनुमानित गति से बढ़ रहे हैं।

किन्तु संयुक्त राष्ट्र की अंतर्राष्ट्रीय अंतर्मंत्रालय समिति ने अपनी वर्ष 2007 की एक रिपोर्ट में दावा किया है कि जलवायु-परिवर्तन की वज़ह से वर्ष 2035 तक उच्च हिमालय के अधिकांश ग्लेशियर खत्म हो जाएँगे, यह चिंता की बात है।पहले इनका दायरा हर बरस बढ़ रहा था, मौसम ठंडा होने की वजह से ऊपरी क्षेत्रों में बारिश की बजाय बर्फबारी होती थी, लेकिन वर्ष 1930 के आते-आते मौसम बदला और बर्फबारी में कमी आने लगी, जिसका असर ग्लेशियरों पर भी हुआ। ग्लेशियर पहले स्थिर हुए और फिर पिघलते ग्लेशियरों का आकार घटने लगा। वर्ष 1950 तक आते-आते इनका आकार तीन से चार मीटर प्रति वर्ष की दर से कम होने लगा। वर्ष 1990-2000 से इनकी गति में धीरे-धीरे वृद्धि देखी गई। गंगोत्री ग्लेशियर, पिछले दो दशक में प्रतिवर्ष पाँच से बीस मीटर की गति से पिघल रहा है।

वर्ल्ड मेट्रोलॉजिकल ऑर्गेनाइज़ेषन की ताज़ा रिपोर्ट में भी यही बताया गया है कि वर्ष 2016 के प्रथम छः माह पिछले वर्षों की तुलना में अपेक्षाकृत ज़़्यादा गरम रहे। इस वैश्विक स्थिति के अंतर्गत हिमालयी-क्षेत्र में ग्लोबल वार्मिंग के चलते प्रतिवर्ष 20 मीटर तक ग्लेशियर पिघल रहे हैं, जिसमें गंगोत्री ग्लेशियर का इलाका भी शामिल है।
कॉमनवेल्थ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रीयल रिसर्च ऑर्गेनाइजेशन के मुताबिक ग्लेशियरों के निरंतर पिघलते जाने से पृथ्वी की कॉर्बन डाई-ऑक्साइड सोखने की क्षमता धीरे-धीरे कम होती जा रही है। पिछले दिनों उत्तराखंड और कश्मीर सहित दुनिया के कई वन-क्षेत्रों में लगी भयावह आग की वज़़ह से भी वातावरण बेहद गर्म रहा। अमेरिका में आए भयानक तूफान का कहर अब भी लोगों को डरा रहा है। अभी कुछ ही दिनों पहले यूरोप के भी कुछ हिस्सों में भारी-भरकम बर्फबारी से जन-जीवन अस्त-व्यस्त हो गया था। ग्लोबल वार्मिंग में जारी रहते जलवायु-परिवर्तन के नतीज़़े बेहद भयावह साबित होंगे।

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पर्यावरण वैज्ञानिक एरिक हॉल्थस के मुताबिक पृथ्वी का तापमान दो डिग्री सेंटीग्रेट तक बढ़ चुका है। अगर इसकी रोकथाम के लिए सतत व ठोस उपाय नहीं किए गए, तो यह पृथ्वी रहने लायक ही नहीं रह जाएगी।यूनिवर्सिटी ऑफ ऑकलैंड के एक ताज़ा अध्ययन के अनुसार वर्ष 2085 में, उत्तरी गोलार्द्ध के देशों में, भीषण गर्मी के कारण ग्रीष्मकालीन ओलंपिक खेलों का आयोजन करवाना ज़रा भी आसान नहीं रह जाएगा। यह अध्ययन-रिपोर्ट ब्रिटिश मेडिकल जर्नल द लॉर्सेंट में प्रकाशित हुई है। भीषण गर्मी का ताज़ा उदाहरण वर्ष 2007 का है, जब शिकागो मैराथन तेज़ गर्मी की वज़ह से बीच में ही रोकना पड़ी थी और कई धावकों को चिकित्सा-सेवा उपलब्ध करवाना पड़ी थी। बढ़ते तापमान की वज़ह से भविष्य की भीषण गर्मियों की मैराथन में धावकों का दौड़ पाना अत्यंत ही कठिनाई भरा हो जाएगा । सबसे भयानक-सूचना यही हो सकती है कि वर्ष 2100 तक ग्लोबल वार्मिंग बेहद भयानक-आकार ले लेगा।

कोलंबिया विश्वविद्यालय के शोधकर्ता माइकल प्रीविडी के मतानुसार भविष्य में आर्कटिक की भूमिका में जबर्दस्त बदलाव आएँगे। नमी बढ़ जाने की वज़ह से तुलनात्मक तौर पर हिमपात भी ज़्यादा होगा। वर्ष 2100 तक समुद्री जलस्तर में होने वाली वृद्धि अपेक्षाकृत 79 से घटकर 51 मिलीमीटर हो जाने की सम्भावना है। समुद्री जलस्तर-वृद्धि से प्रषांत और हिन्द-महासागर के कई द्वीपों का अस्तित्व गहरे संकट से घिर गया है। वैश्विक तापमान में अगर चार डिग्री बढ़ोतरी हुई, तो पष्चिम यूरोप के बाहर सिर्फ आठ शहर ही ऐसें होंगे, जो ओलंपिक जैसे खेल-आयोजन कर सकेंगे। यही नहीं लंदन और मुम्बई जैसे शहर भी तब आधे डूब जाएँगे। यह लेख लिखे जाने तक आधा भारत बाढ़़ की डूब में आ चुका है और छः सौ से ज़्यादा लोगों की जनहानि हो चुकी है। ज़ाहिर है कि ग्लोबल वार्मिंग सबसे भयानक ख़बर है। एक अकेले मध्यप्रदेष में ही इस बारएक सौ करोड़ की सड़कें और एक हज़ार करोड़ की फसलें नष्ट हो चुकी हैं।इसीसे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि ग्लोबल वार्मिंग जन्य बाढ़ से देष और दुनिया में बर्बादी काआंकड़ा क्या हो सकता है ?



स्मरण रखा जा सकता है कि समूचे विश्व के लिए ख़तरा बन चुका ग्लोबल वार्मिंग का मामला सिर्फ आज के ही दौर की समस्या नहीं है, बल्कि इसकी शुरूआत लगभग दो सौ बरस पहले ही हो गई थी। यह एक अद्भुत खोज है, जहाँ विज्ञान हमें आश्चर्यचकित कर देता है, लेकिन निष्कर्ष नितांत स्पष्ट है। जिस ग्लोबल वार्मिंग का सामना करते हुए आज हम गंभीर संकट से त्रस्त हो रहे हैं, उसका प्रारंभ आज से तकरीबन एक सौ अस्सी बरस पूर्व हो चुका था।

ऑस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी द्वारा घोषित किए गए शोध के प्रमुख शोधकर्ता नेरीली अबराम का कहना है कि औद्योगिकीकरण की शुरूआत में जब मनुष्य ने छापाख़ाने और भाप या कोयले से चलने वाले जहाजों तथा रेलगाडि़यों का इस्तेमाल शुरू किया, ठीक तब से ही यह ग्लोबल वार्मिंग की मुसीबत भी मनुष्य के गले पड़ गई। नेरीली अब राम के सहयोगी शोधकर्ता डॉ. हेलेन मैकग्रेगर का आकलन है कि निश्चित तौर पर अठारहवीं शताब्दी के दौरान ही मानवीय गतिविधियों की वजह से वायुमंडल में ग्रीन हाउस गैसों का स्तर बढ़ना शुरू हुआ, जिसने ग्लोबल वार्मिंग की संत्रास-वृद्धि को जन्म दिया, अब यही ग्लोबल वार्मिंग हमारे लिए सबसे भयानक ख़बर साबित हो रही है।

भयानक नतीजे होंगे ग्लोबल वार्मिंग से हो रहे जलवायु परिवर्तन के
There will be disastrous consequences of climate change due to global warming

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