ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है?


मोदी सरकार को अभी कुल जमा ढाई साल ही हुए हैं, मगर उसका अहंकार काँग्रेस के सत्तर सालों में बने अहंकार के पहाड़ को चुनौती देने लगा है। संसद की सीढ़ियों पर माथा टेककर लोकतंत्र के मंदिर में प्रवेश करने वाले उस मीडिया को खुले आम कोस रहे हैं, जिसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का झंडाबरदार बताते नहीं थकते थे। आपातकाल के काले दिनों को धिक्कारने वालों में भी वे सबसे आगे रहते थे, मगर अब एक अघोषित आपातकाल लगाते हुए उन्हें ज़रा भी लाज-शरम नहीं आ रही।

ये सर्वविदित एवं सर्वमान्य सचाई है कि जितना अनुकूल मीडिया मोदी सरकार को मिला है, उतना अब तक किसी भी सरकार को नहीं मिला होगा। पूरी तरह से नतमस्तक, झुकने को कहा जाए तो रेंगने को तैयार रहने वाला मीडिया। प्रधानमंत्री की शान में गुस्ताख़ी करने की तो न उसकी हिम्मत है और न ही चाहत, भले ही पत्रकारिता पतनशीलता के पाताल में समा जाए। वह उनके किए पर प्रश्न खड़े नहीं करता, चाहे पूरा देश लाइन में खड़ा-खड़ा त्राहिमाम् कर रहा हो। वह यही साबित करने पर लगा रहता है कि पूरा देश त्याग करने के लिए तैयार है और मोदीजी के इस क़दम की भूरि-भूरि प्रशंसा कर रहा है। अगर आलोचना भी करनी हुई तो उन्हें बचाते हुए, उनके इरादों का महिमागान करते हुए और दूसरों पर ठीकरा फोड़ते हुए।

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लेकिन विडंबना देखिए कि इतनी वफ़ादारी और भक्ति के बावजूद प्रधानमंत्री और उनके मंत्री मीडिया से बुरी तरह ख़फ़ा हैं। उन्हें मीडिया से ढेर सारी शिकायतें हैं और वे आक्रोश के साथ बयान की जा रही हैं। लेकिन बात यहीं तक सीमित होती तो मान लिया जाता कि उनकी अपेक्षाएं और भी ज़्यादा होंगी, इसलिए असंतुष्ट हैं। वे मीडिया को वॉच डॉग की तरह नहीं, पालतू कुत्ते की तरह देखना चाहते हैं, जो उनके पैरों के आस-पास कूँ कूँ करते घूमे और उन्हीं के इशारों पर भौंके-काटे। लेकिन बात अब डराने-धमकाने तक जा पहुँची है, अप्रिय पत्रकारों और इक्का-दुक्का प्रतिकूल मीडिया घरानों को बदनाम करने तक जा पहुँची है।




यही वजह है कि प्रधानमंत्री समेत उनके मंत्रीगण तक आए दिन मीडिया को टॉरगेट बनाते रहते हैं। नरेंद्र मोदी बनारस की एक सभा में नोटबंदी के सवाल पर एक रिपोर्टर की खिल्ली उड़ाते हैं। सूचना एवं प्रसारण मंत्री वेंकैया नायडू, जिन्हें मीडिया की स्वतंत्रता के बारे में ख़ास तौर पर सजग रहना चाहिए और किसी तरह की ओछी टिप्पणी करने से परहेज़ करना चाहिए, वे दिल्ली में सरे आम मीडिया पर बरसते हैं। रक्षामंत्री मनोहर पर्रिकर तो और भी अनूठे मंत्री हैं। प्रधानमंत्री के शब्दों में कहें तो नवरत्न। उनकी ज़ुबान इस सरकार में सबसे ज्यादा बेलगाम हो चुकी है और उनके विचार तो जैसे हिटलर की फैक्ट्री से बनकर आते हैं। वे सीधे-सीधे मीडिया को धमकाते नज़र आते हैं। गृह राज्य मंत्री किरण रिजिजू मीडिया के सवाल पूछने या किसी सरकारी कार्रवाई पर संदेह ज़ाहिर करने पर भी आपत्ति प्रकट कर देते हैं और ताज्जुब की बात ये है कि उन्हें कोई रोकता, बरजता नहीं है। दो और स्वनामधन्य मंत्री हैं रविशंकर प्रसाद और स्मृति ईरानी जो एक पत्रकार के प्रश्न का जवाब देने के बजाय उसकी निष्ठा को निशाना बनाते हैं, उसे अपमानित-लाँछित करने में जुट जाते हैं। वे केंद्रीय मंत्रियों की मर्यादाओं को भूलकर किसी छोटी पार्टी के छुटभैये नेता की तरह बर्ताव करने लगते हैं। वित्तमंत्री अरूण जेटली बहुत वरिष्ठ नेता हैं और मंत्रिमंडल में भी उनका कद सबसे बड़ा है। मगर उन्हें मीडिया को सीख देने की पुरानी लत लगी हुई हैं। मंत्री बनने के बाद उनकी वकील वाली ज़ुबान और भी तीखी हो चुकी है।

ख़ैर मनाइए कि मीडिया को प्रेस्टीट्यूट घोषित करने वाले जनरल वी. के. सिंह और विरोधी विचार वालों को पाकिस्तान की राह दिखाने वाले गिरिराज सिंह चुप हैं, वर्ना मीडिया को पूरी तरह कुचलने का माहौल बन जाता। लेकिन क्या ये सचाई नहीं है कि मीडिया की मुश्कें कस दी गई हैं, मुँह बंद कर दिया गया है? अगर थोड़ा-बहुत कुछ दिखलाई दे जाता है तो वह उसकी मजबूरी है। जनता का पैरोकार होने का भ्रम बनाए रखने के लिए सरकार को छोटी-मोटी चिकोटी काटते रहना उसके लिए ज़रूरी है, वर्ना जन्नत की हक़ीक़त से तो सब वाकिफ़ ही हैं।



अहंकारियों के साथ समस्या ये है कि वे किसी की सुनने को राज़ी नहीं होते। उन्हें अपना, चेहरा और अपने विचार-वाणी ही प्यारे लगते हैं। इसलिए ईश्वर (जो है नहीं) से प्रार्थना करना ही ठीक होगा कि वह इन्हें सद्बुद्धि दे और वे अपना अँदाज़-ए-गुफ़्तगू बदलें।

ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है?

Written by-डॉ. मुकेश कुमार


डॉ. मुकेश कुमार









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