तीन दिन से इसी उधेड़बुन में लगा हुआ था कि अबकी बार किसका एनकाउंटर करूँ। हर बार वही गिने-चुने चेहरे और घिसी-पिटी उनकी बातें सामने आ जाती थीं इसलिए सोच रहा था कि क्या करूँ, कहाँ से किसको तलाशूँ। थक-हार के जब आँखें मूँदने जा रहा था तभी दरवाज़े पर ठकठक हुई। मैंने पूछा कौन तो एक अपरिचित सी आवाज़ आई-दरवाज़ा खोलिए। आवाज़ इतनी दमदार और विश्सनीय लगी कि बगैर कोई नया सवाल किए मैंने उठकर दरवाज़ा खोल दिया। लेकिन वहाँ किसी को न देखकर मैं हैरत में पड़ गया। सोचा शायद नींद का प्रभाव है और एनकाउंटर लिखने की चिंता की वजह से भ्रम हुआ है।
मैं दरवाज़ा वापस बंद करने वाला ही था कि फिर आवाज़ सुनाई दी-अरे दरवाज़ा बंद क्यों कर रहे हैं, मुझे अंदर तो आने दीजिए। मैं भौंचक्का सा बाहर ताकने लगा, मगर दिखाई कुछ भी नहीं पड़ा। पंद्रह सेकेंड बाद फिर आवाज़ आई-अरे परेशान क्यों हो रहे हो भाई.....मैं तुम्हें दिखलाई नहीं दूँगा। दरवाज़ा खोलो। मैंने आशंकाओं और ऊहापोह के बीच आख़िरकार दरवाज़ा खोल दिया। मुझे ऐसा लगा कि कोई अंदर आ गया है। मैंने अंदर से दरवाज़ा बंद करते हुए उस अदृश्य शख्स से पूछा कि आख़िर माजरा क्या है? तुम कौन हो? आगंतुक ने गहरी साँस ली और सोफे पर बैठते हुए (जिस ओर से ध्वनि आ रही थी उससे मैंने अंदाज़ा लगाय़ा) कहा- मैं न्यू ईयर हूँ यानी सन् 2017 हूँ।
मुझे फिर झटका लगा। क्या आगामी साल के पास इतना वक़्त है कि इस तरह से आधी रात को आवारागर्दी करते हुए किसी लेखक के घर में घुस आए? फिर मैंने महसूस किया कि अगले की आवाज़ में दर्द है, पीड़ा है और उसे समझना चाहिए। लिहाज़ा मैंने सवाल करने शुरू कर दिए।
न्यू ईयर साहब, हालाँकि आपका ये परिचय मेरे पल्ले नहीं पड़ रहा है, मगर फिर भी कृपया ये बताइए कि आख़िर इस वक़्त यहाँ तशरीफ़ लाने का मक़सद क्या है?
बिना मक़सद तो मैं कहीं जाता नहीं, इसलिए मक़सद तो ज़रूर है और उसे बताऊँगा भी। दरअसल, बात ये है कि जिस तरह से लोग नए साल से उम्मीदें कर रहे हैं, उसने मुझे परेशान कर दिया है। इसी परेशानी से परेशान होकर मैं आपके पास आया हूँ।
तो सबसे पहले अपनी परेशानी ही बता दीजिए?
परेशानी ये है कि लोग मुझसे बहुत ज़्यादा उम्मीदें कर रहे हैं और मैं जानता हूँ कि वे उम्मीदें पूरी नहीं होने वाली।
न्यू ईयर जी, उम्मीदें करना तो लोगों का हक़ है, आप उस पर पाबंदियाँ तो लगा नहीं सकते। अब आप ये तय कर लीजिए कि किन्हें पूरी करना है और किन्हें नहीं?
यही तो मुश्किल है मेरे भाई। उम्मीदों का अंबार लग गया है और मैं उन्हें पूरा नहीं कर सकता।
अरे आपके हाथ में तो सब कुछ है आप क्यों नहीं कर सकते उन्हें पूरा?
मैंने कहा न उम्मीदों का अंबार लग गया है। एक तो पहले से ढेर सारी उम्मीदें पेंडिंग थीं, ऊपर से नोटबंदी ने उम्मीदों की तादाद बढ़ा दी। अब बताइए मैं क्या करूँ। मेरा सिस्टम भी अभी डिजिटल नहीं हुआ है इसलिए प्रोसेसिंग में टाइम लगता है।
कोई बात नहीं आपके पास तो 365 दिन हैं। भारत के लोग बहुत धैर्यवान् हैं, वे इंतज़ार कर लेंगे?
लेकिन असली वजह ये नहीं है। वास्तव में मैं बेहद दुखी हूँ। यही सोचकर आपके पास चला आया कि आप तो लेखक-पत्रकार हो, मेरी पीड़ा को समझ पाओगे। न्यू ईयर की आवाज़ में अचानक से कातरता आ गई।
मैने भी सांत्वना देने वाले स्वर में कहा-बताइए, शायद मैं आपका दुख बाँट सकूँ?
अब उसकी आवाज़ रूँआसी हो गई थी-उसने लगभग रोते हुए कहा-दरअसल बात ये है कि मैं सबसे ये कहना चाहता हूँ कि मुझसे उम्मीद न रखो क्योंकि मैं खुद नाउम्मीद हूँ।
आप ये कैसी बात कर रहे हैं? आपको तो लोगों की उम्मीदें पूरा करने का ज़िम्मा मिला हुआ है, आप कैसे नाउम्मीद हो सकते हैं?
यही तो बात है जिसकी वजह से मैं दुखी हूँ। पिछले साल के हालात ने मुझमें इतनी निराशा भर दी है कि मैं नाउम्मीद हो चुका हूँ।
पिछले साल में ही ऐसा क्या हो गया न्यू ईयर साहब जिसकी वजह से आप इस कदर निराश-हताश हो गए हैं कि नाउम्मीदी आप पर हावी हो गई है?
देखिए, कोई एक बात हो तो बताऊँ। पूरा साल ही ऐसी घटनाओं से भरा रहा कि अच्छे से अच्छा आशावादी भी निराशाओं से भर जाए। ब्राम्हणवादी हिंदुत्वादियों ने जिस तरह का आतंक फैलाया उसने तो मुझे हिलाकर रख दिया। वे दलितों को टॉरगेट कर रहे हैं, अल्पसंख्यकों को टॉरगेट बना रहे हैं और वह हर आदमी उनके निशाने पर जो उनकी हाँ में हाँ नहीं मिलाता। वे अपने विरोधियों को देशद्रोही घोषित करके दूसरे देश चले जाने को कहने लगे हैं। उन्हें न तो इस देश की फ़िक्र है और न ही समाज की।
आपसे सहमत हूँ। मगर क्या इतने से ही निराश हो जाना चाहिए?
नहीं होना चाहिए। लेकिन चूँकि ये प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है और उसे बढ़ाने वालों को हर तरफ से समर्थन मिल रहा है इसलिए निराशा होना लाजिमी है न।
देखिए, एक बड़ा वर्ग विरोध कर रहा है। आपको याद होगा कि अभी पिछले साल ही लेखकों और कलाकारों ने पुरस्कार तक वापस कर दिए थे, जिसका मतलब है कि उम्मीद की हल्की सी ही सही किरण बाक़ी है?
पहले मैं भी यही सोचता था, मगर उस मुहिम का हश्र देखने के बाद मैं फिर मायूस हो गया। उसके बाद तो विरोध की कोई लहर तक नहीं उठी। उल्टे समाज विरोधी शक्तियों के हौसले बढ़ते चले गए। जेएनयू की ही घटना को ले लीजिए। किस तरह से उन्होंने उस विश्व प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय की छवि खराब करने का अभियान छेड़ रखा है और उन्हें कोई रोकने वाला ही नहीं है।
मुझे लगता है कि न्यू ईयर साहब आपको अच्छी घटनाओं की तरफ भी ध्यान देना चाहिए, अन्यथा आप एक तरह की राय बनाने के लिए अभिशप्त हो जाएंगे?
उदाहरण देकर बता सकते हैं कि कौन सी घटना उम्मीद बढ़ाने वाली थी।
जैसे पाकिस्तान के खिलाफ़ सर्जिकल स्ट्राइक। इसने आतंकवाद के खिलाफ़ हमारे सख़्त रवैये का प्रदर्शन किया?
लेकिन नतीजा क्या निकला। सरहद पर टकराव की घटनाएं बढ़ गईँ। पहले के मुक़ाबले ज़्यादा जवान मारे गए और नागरिकों की जानें भी ज़्यादा गईँ। आतंकवाद पर कोई लगाम तो नहीं लगी मगर पाकिस्तान के साथ हमारे संबंधों में और गिरावट आ गई। यहाँ तक कि अब तो ये आशंका भी बढ़ गई है कि कहीं जंग न हो जाए।
चलिए सर्जिकल स्ट्राइक को छोड़ दीजिए। भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ जो मुहिम सरकार ने नोटबंदी के साथ चलाई है, उसे तो आप एक आशाजनक पहल मानेंगे ही न?
देखिए, शुरू में तो मुझे यही लगा था कि भ्रष्टाचार दूर करने के लिए इसे लाया गया है, मगर अब तो सारे राज़ खुल चुके हैं। अब सबको पता चल चुका है कि नोटबंदी का भ्रष्टाचार दूर करने से दूर का भी वास्ता नहीं है। ये तो काले धन को सफ़ेद बनाने की स्कीम थी और उसका भ्रष्टों ने भरपूर फ़ायदा भी उठाया। हाँ, आम आदमी, किसान, मज़दूर, गरीब-गुरबा लोग परेशान हुए और आगे भी होने वाले हैं। उनकी नौकरियाँ जाएंगीं, रोज़गार जाएंगे, मंदी जाने कितनों को लील जाएगी, अर्थव्यवस्था तो ख़ैर चौपट हो ही रही है। अब आप ही बताइए नोटबंदी बुरी घटना थी या अच्छी।
आप सही कह रहे हैं। केवल एक फ़ीसदी लोगों के लिए ही हालात बेहतर हो रहे हैं, वही पूरे देश पर कब्ज़ा कर रहे हैं, उसे चला रहे हैं। लेकिन न्यू ईयर जी, आपको देखना चाहिए कि लोग इस सबके ख़िलाफ़ बोल रहे हैं और अगर बोल रहे हैं तो उसका असर भी होगा?
काश ऐसा होता। लेकिन जब मैं मीडिया को देखता हूँ तो उसमें आम लोगों की आवाज़ तो सुनाई ही नहीं देती। वह तो सरकार और कार्पोरेट जगत का भोंपू बना रहता है, उनकी चापलूसी करता रहता है। ऐसे में लोगों के बोलने का भला क्या असर होगा?
न्यू ईयर जी आप सही कहते हैं। मेरे संपादकजी का नज़रिया भी चेंज हो गया है। वे भी जनता की आवाज़ से घबराने लगे हैं इसलिए उसे सेंसर करते रहते हैं। लेकिन मेरा आपसे एक निवेदन है और वह ये कि लाख बुरी घटनाएं हो रही हों, मगर आप निराश मत होइए, नाउम्मीद होइए क्योंकि सब आपसे ही उम्मीद पाते हैं। बुरी परिस्थितियों से निकलने के लिए उम्मीदों का होना बहुत ज़रूरी है इसलिए उम्मीदों को जगाते रहिए और जितनी पूरी कर सकते हैं पूरी भी करते रहिए। न्यू ईयर को लोग इसीलिए सेलिब्रेट करते हैं, क्योंकि वह पिछले साल की कड़वी यादों को भूलकर नई उम्मीदों के साथ जीने के लिए प्रेरित करता है। आप बस इतना कीजिए। आप देखिएगा आपकी कोशिश रंग लाएगी।
ठीक है। दरअसल, मैं जानता था कि मौजूदा हालात में कोई लेखक, कलाकार ही नाउम्मीदी से उबार सकता है और इसीलिए मैं आपके पास आया था। मेरा आपके पास आना सार्थक हो गया।
मुझे लगा कि इतना कहने के बाद वह धीरे से मुस्कराया और फिर मेरे कान में उसने हैप्पी न्यू ईयर कहा। मैं खुशी से भर उठा। मैंने भी उसे सेम टू यू कहा। इसके बाद मैंने महसूस किया कि वह मेरे पास से होता हुआ घर के बाहर चला गया है। लेकिन मैं अभी भी न्यू ईयर के साथ गुज़ारे गए उन क्षणों को याद करके रोमांचित हो रहा हूँ।
मुझसे उम्मीद न रखो, मैं खुद नाउम्मीद हूँ-न्यू ईयर
Written by-डॉ. मुकेश कुमार
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