लालू और आरजेडी के लिए नीतीश कुमार से ज्यादा शहाबुद्दीन महत्वपूर्ण क्यों हैं?

यदि नीतीश सरकार सरकार शहाबुद्दीन की ज़मानत के खिलाफ़ सुप्रीम कोर्ट मे जाती है तो वह काफी हद तक उसे नुकसान की भरपाई कर सकती है जो कि उसके छूटने के बाद उसे हुआ है। और अगर ज़मानत खारिज़ होने के बाद शहाबुद्दीन फिर से सीखचों के पीछे चला जाता है तब तो ये उसकी एक बड़ी जीत भी साबित हो सकती है। उसके दामन पर लगा दाग़ धुंधला पड़ जाएगा।

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लेकिन फिलहाल जो संकट खड़ा हुआ है  उसके लिए शहाबुद्दीन ज़िम्मेदार नहीं है। उसके छूटने में बेशक़ राज्य सरकार की ढिलाई रही है और इसीलिए वह कठघरे में खड़ी है। लेकिन समस्या की मूल वजह शहाबुद्दीन नहीं राष्ट्रीय जनता दल है। जेल से छूटने के बाद उसने जिस तरह से मुख्यमंत्री पर हमले किए उसने भी यही संकेत दिए हैं कि वह राजद से मिलने वाले समर्थन के बल पर ही ऐसा कर सका।



अगर शहाबुद्दीन को आरजेडी प्रमुख लालू यादव की ओर से अभयदान न मिला होता तो उसकी ये हिम्मत कतई न होती कि जेल से रिहा होते ही मुख्यमंत्री पर हमला बोलने लगता। नीतीश को परिस्थितियों का मुख्यमंत्री बताना एक ऐसा कड़ा बयान था जो नीतीश और उनकी पार्टी को नागवार गुज़रा। नीतीश तो इसे हँसकर टाल गए लेकिन जेडीयू ने तीखा जवाब दिया।

यही नहीं, राजद के कई नेताओं ने शहाबुद्दीन के सुर में सुर मिलाकर जताने की कोशिश की कि वे शहाबुद्दीन के साथ हैं। रघुवंश प्रसाद सिंह जैसे वरिष्ठ नेता का शहाबुद्दीन के बयानों का समर्थन करते हुए नीतीश पर हमला करना यही जताता है। बाद में लालू ने उनके बयान को अनुचित ज़रूर ठहरा दिया मगर उन्होंने अपनी पार्टी को गठबंधन धर्म का पालन करने के लिए ताकीद नही किया।



वैसे भी ये आम धारणा है कि राजद शहाबुद्दीन के साथ थी, है और रहेगी। उसके नेता जेल में मुलाक़ात के लिए जाते रहे हैं और शहाबुद्दीन के गुर्गे राजद नेताओं के साथ देखे गए हैं। साफ है कि इस कुख्यात अपराधी को लालू ने त्यागा नहीं किया है, बल्कि वे उसे गले से लगाकर रखे हुए हैं।

हैरत की बात है कि जब राजद के पास अपनी छवि सुधारने का मौक़ा है तो वह फिर से उन्हीं के शरण में जा रही है। लालू समझ नहीं पा रहे हैं कि अब बीस साल पहले वाली राजनीति के दिन लद चुके हैं और ऐसा करके वे अपने दल का ही नहीं, अपने वंश का भविष्य भी चौपट कर रहे हैं। मुख्यमंत्री बनने का इंतज़ार कर रहे उनके लाड़ले की सफलता साफ़-सुथरी छवि से ही संभव है, मगर वे ठीक उसके उलट व्यवहार कर रहे हैं।

मुमकिन है कि लालू और उनकी पार्टी अब नीतीश कुमार को ध्वस्त करके सत्ता पूरी तरह से अपने हाथों में लेने की रणनीति पर काम कर रही हो। लेकिन ये जल्दबाजी तो होगी ही, आत्महत्या भी होगी। ये ज़रूरी है कि सरकार स्थिर रहे, अच्छा काम करे और सत्ता का हस्तांतरण मेल-मिलाप से हो। मगर यदि गठबंधन के दोनों साझीदारों के बीच घमासान चला तो दोनों का नुकसान होगा और फ़ायदा उठाएगी बीजेपी।

लालू और आरजेडी के लिए नीतीश कुमार से ज्यादा शहाबुद्दीन महत्वपूर्ण क्यों हैं?

Written by-रघुनंदन यादव

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