समाजवादी पार्टी और उसकी सरकार में मचे कोहराम के बहुतेरे अर्थ निकाले जा रहे हैं। कोई इसे चाचा-भतीजे की लड़ाई का नाम दे रहा है, कोई इसे नौजवान मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की बगावत के रूप में देख रहा है तो कोई इस पूरे प्रहसन में अमर सिंह को खलनायक बता रहा है। कई लोग इसे चुनाव पूर्व की कवायद बता रहे हैं और कई लोग तो हलफ़ उठाकर कहने को तैयार हैं कि ये और कुछ नहीं, बल्कि अखिलेश यादव की इमेज बिल्डिंग का हथकंडा है।
वास्तव में सपा का गृहयुद्ध अंधों का हाथी बन गया है। जिसके हाथ जो लग रहा है, वह उसे ही परमसत्य मान ले रहा है। लेकिन असलियत ये है कि इस पूरे विवाद के चाहे जितने भी पहलू हों, मगर ये है सत्ता का संघर्ष ही। इस सत्ता संघर्ष में दो पीढ़ियाँ आपस में टकरा रही हैं।
पुरानी पीढ़ी पुराने अनुभवों के आधार पर पार्टी एवं सरकार को हाँकना चाहती है जबकि नई पीढ़ी अपनी शर्तों पर। मुलायमसिंह का पुत्रमोह चाहे जैसा हो, मगर हैं वे पुराने अखाड़े के खिलाड़ी ही। उनके भाई शिवपाल सिंह भी उसी अखाड़े में कुश्ती लड़ना सीखे हैं, जबकि अखिलेश यादव के अंदर नई राजनीति करने की छटपटाहट है। पाँच साल के अनुभव ने उन्हें सच्चा या झूठा जो भी आत्मविश्वास दिया होगा वे उसके बल पर अपने अंदाज़ में आगे बढ़ने के लिए छटपटा रहे हैं।
लेकिन ज़ाहिर है कि मसला सत्ता का है, चुनाव का है और सब उसी को ध्यान में रखकर दाँव खेल रहे हैं। अगर ऐसा न होता तो साढ़े चार साल तक एक मोहरे के रूप में सरकार चलाने वाले अखिलेश बागी न हुए होते। वे जानते हैं कि अगर उन्होंने ज़ोर न लगाया तो चुनाव बाद बाज़ी चाचा के हाथों में जा सकती है। उन्हें पता है कि उनका चेहरा लेकर ही पार्टी चुनाव में जा सकती है इसलिए वे दबाव बनाने में हिचक नही रहे।
दूसरी ओर, शिवपाल चुनाव की बागडोर अपने हाथों में रखकर भविष्य की चौसर अपने हिसाब से गढ़ना चाहते हैं। पार्टी पर उनकी पकड़ अखिलेश के मुक़ाबले कहीं मज़बूत है और यही उनका तुरूप का पत्ता भी है। अगर वे इसे चलने में चूक गए तो फिर हाशिए पर चलें जाएंगे।
परिवार और सरकार की लड़ाई नहीं ये सत्ता का अश्लील संघर्ष है
This is not a fight of family or government, it is an obscene power struggle
Written by-प्रदीप यादव