किसकी लाठी, किसके लठैत?


मीडिया अब पेशेवर लठैत बन गया है। वह सूचना देने, शिक्षित करने या मनोरंजन प्रदान करने के बजाय लट्ठ चलाता है। बल्कि ये कहना चाहिए कि सूचनाएं देने के नाम पर लट्ठबाज़ी करके मनोरंजन करता है। ये और बात है कि इससे लोगों को  कुछ न कुछ शिक्षा भी मिल ही जाती है। वे जान जाते हैं कि लट्ठबाज़ी के ज़रिए उन्हें क्या संदेश दिए जा रहे हैं, उनसे क्या करने या  न करने के लिए कहा जा रहा है।

Who sticks deshkaal
मीडिया की लट्ठ बातों की होती है। इसे बहुत जगह लठैती की तर्ज़ पर बकैती भी कहा जाता हैं। यानी बातों से किसी की ठुंकाई करना। इसकी मारक क्षमता को कम समझने की भूल नहीं की जानी चाहिए। इस लठैती या बकैती की चोट बहुत गहरी होती है। वह मूँदी चोट होती है। ऊपर से दिखलाई नहीं देती, क्योंकि शरीर पर कोई निशान नहीं छोड़ती, मगर घाव गंभीर करती है।




वैसे मीडिया की लठैती कोई नई बात नहीं है। वह पहले भी लठैती करता था। हालाँकि कम करता था और ज़्यादातर अपने मालिकों के लिए ही करता था। अपने स्वामियों के स्वार्थों की रक्षा के लिए वह सरकारों, अधिकारियों और नेतागणों पर लट्ठ से प्रहार करता रहता था। मीडिया की लट्ठ लेकर मालिक अपने धंधों को हाँकता था और उनकी रखवाली भी करवाता था।

यानी मीडियावी लट्ठबाज़ी की परंपरा पुरानी है। अगरचे पिछले कुछ समय में उसमें कई बड़े बदलाव भी आए हैं। टेक्नालॉजी और निरंतर प्रशिक्षण की मदद से उसने अपनी लठैत क्षमता का काफी विकास किया है। इस बीच उसके माई-बापों की तादाद भी बढ़ गई है। वह उनके लिए लट्ठ सेवा में ज़्यादा रत रहने लगा है। इसे आप चाहें तो बक-सेवा या बकबक सेवा का नाम भी दे सकते हैं।

मीडिया की लठैती का नया स्वरूप ये है कि वह अब बड़े धनपशुओं के साथ-साथ नेताओं और राजनीतिक दलों के लिए ज़्यादा निष्ठावान हैं। ये वर्ग अपनी राजनीति का साधने के लिए अपने विरोधियों के ख़िलाफ़ मोर्चा चलाते हैं और जैसे ही वे ये शुभ कार्य करते हैं मीडिया उत्साहित होकर पूरी ताक़त से उनके लिए लट्ठ भाँजकर माहौल बनाने का काम करने लगता है। वास्तव में वह उनके इशारों भर से फ़ौरन समझ जाता है कि उसे क्या करना है और कितना करना है। उसे मौक़ों का इंतज़ार रहता है और कई बार तो वह खुद ही अवसर पैदा कर लेता है।




मीडिया को पता है कि लट्ठ सेवा का बाज़ार बहुत बड़ा है। एक तरफ राजनीतिक दल, नेता और सरकार है जिन्हें राजनीतिक लट्ठबाज़ी की आए दिन ज़रूरत पड़ती रहती है। इसीलिए कई तो अपने निजी मीडिया लठैत भी रखते हैं। लेकिन जिनकी सामर्थ्य इतनी नहीं होती या जिन्हें ये तरीका रास नहीं आता वे आवश्यकतानुसार भाड़े पर उपलब्ध लठैतों का इस्तेमाल करते हैं। दूसरी ओर पाठकों एवं दर्शकों का विशाल समूह है जिसे इस लट्ठबाज़ी में बहुत आनंद आता है और अगर प्रदर्शन अच्छा रहा तो वे टीआरपी से नवाज़ देते हैं। इससे कमाई बढ़ती है। यानी आम के आम गुठली के दाम वाली कहावत चरितार्थ होती है।

मीडियावी लठैती की बढ़ती उपयोगिता ने कई बड़े लठैत पैदा किए हैं। पत्रकारों के भेष में छिपे इन लठैतों का आतंक चारो दिशाओं में फैल चुका है। सब जानते हैं कि इन लठैतों के हाथों में जिसका गिरेबान पड़ गया उसके पुरज़े उड़ने तय हैं। वे अपने हाव-भाव से, अपनी भाषा से और अपने गले की ताक़त से किसी की भी इज्ज़त का जनाजा निकाल सकते हैं। ऐसे पालतू लठैतों को सत्ता के गलियारों में ख़ास महत्व दिया जाता है। पुरस्कार तथा विशेष साक्षात्कार आदि देकर उनकी भुजाओं में ताक़त भरी जाती है, ताकि वे उनके काम और भी कुशलता से कर सकें।

ये लठैत अपनी लाठी-कला की आज़माइश हमेशा कमज़ोर शिकार या सॉफ्ट टारगेट पर करते हैं। कोई लेखक-बुद्धिजीवी, संस्कृतिकर्मी-फिल्मी कलाकार या फिर सामाजिक कार्यकर्ता जैसा निरीह, शक्तिहीन शिकार हो तो लठैतों की भुजाएं फड़कने लगती हैं और वे दोगुनी शक्ति से उस पर टूट पड़ते हैं। उदाहरण के लिए आप हाल में करण जौहर और ओम पुरी पर हुई लट्ठबाज़ी को ले सकते हैं। पहले बढ़ती असहिष्णुता का मुद्दा उठाने वाले लेखकों-कलाकारों-बुद्धिजीवियों के साथ भी उन्होंने यही सलूक किया था। तीस्ता सीतलवाड़ के साथ जो हुआ सबके सामने है। दिल्ली विश्विद्यालय और जवाहल लाल नेहरू विश्वविद्यालयों के प्राध्यपकों के मामले में भी मीडिया लठैतों की सक्रियता ताजा नमूना है।

आपने गौर किया ही होगा कि ये लठैत कभी भी बड़े उद्योगपतियों पर तब तक हाथ नहीं डालते जब तक कि वह बुरी तरह फँस न गया हो या फिर उसे अपने मालिकानों से हुक्म न मिल गया हो। वे शक्तिशाली नेताओं के सामने भी हाथ जोड़कर खड़े रहते हैं। विज्ञापन देने वाली कंपनियों और सरकारों के सामने तो उनकी घिग्घी बँधी रहती है। वे उनके सामने आते ही लाठी छोड़कर दंडवत् हो जाते हैं।




कभी माना जाता था कि मीडिया की लाठी कमज़ोरों के लिए है, शोषित, वंचितों के हक़ में चलने के लिए है। मगर सारे भ्रम टूट गए हैं। सबको पता चल गया है कि लाठी किसकी है और लठैत किसके लिए काम करते हैं।

किसकी लाठी, किसके लठैत?

Written by-डॉ. मुकेश कुमार
डॉ. मुकेश कुमार










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