क्या गुल खिलाएगी इरोम शर्मिला की हुंकार?


नई राजनीतिक पार्टियों का बनना कोई विरल घटना तो नहीं है। लेकिन अन्ना आंदोलन के बाद अरविंद केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी (आप) का गठन करके दिखा दिया कि नए दलों के लिए संभावनाएं खुली हुई हैं। अब जबकि दुनिया भर में लोकतांत्रिक संघर्ष की मिसाल बनी इरोम शर्मिला चानू ने पीपुल्स रिसर्जेंस एंड जस्टिस अलायंस (प्रजा) का ऐलान किया है तो एक बार फिर सबकी निगाहें उन पर हैं। पूछा जा रहा है कि क्या वह मणिपुर में दिल्ली दोहरा पाएंगी?

Irom-Sharmilas-challenge
निस्संदेह इरोम शर्मिला ने अभी अपनी पार्टी का ऐलान ही किया है। मणिपुर विधानसभा की 60 में से महज 27 सीटों से रणदुंदभी बजायी है। उनकी ‘प्रजा’ के पांव अभी पालने में ही हैं। लेकिन जैसा कि मान्यता है- होनहार बिरवान के होत चीकने पात। ‘प्रजा’ के जन्म ने ही सुदूर पूर्वोत्तर के इस बेपनाह खूबसूरत अंचल से सत्ता की रेवड़ी बांटती आ रहे दलों को चेता दिया है। चवालीस वर्षीय शर्मिला ने सीधे मुख्यमंत्री ओकराम इबोबी सिंह को उनके गढ़ में घेरने की हुंकार भरी है।

हम यहां कंस-कृष्ण का उदाहरण नहीं देना चाहते। लेकिन पुराणैतिहास की तमाम गाथाएं भी हमें ऐसे प्रसंगों की याद दिलाती रहती हैं जब सत्ता के मद में चूर शासक किसी अजन्मे शिशु की कल्पना से ही कांप उठता था।
इरोम शर्मिला ने तो सीधे-सीधे सत्ता को ही चुनौती दी है। उस सत्ता को जो लगातार तीन बार से मणिपुर में कुंडली मारे बैठी है। उस सत्ता को जो जन-अधिकारों को मटियामेट करने पर तुले सशस्त्र बल विशेषाधिकार (संशोधित) अधिनियम अर्थात अफ्स्पा के बल पर आम नागरिकों से भी बहुधा उग्रवादियों-सा बर्ताव करती नजर आती है।

अफ्स्पा को देश की आंतरिक सुरक्षा के हित में उग्रवादियों को काबू में करने के एकमात्र एंटीबायोटिक्स बना दिया गया है। सभी का मानना है कि देश की आंतरिक और बाह्य सुरक्षा सबसे पहले है। लेकिन किसके लिए? अपने लोक के लिए? अथवा महज तंत्र की आत्मतुष्टि के लिए? लोकतंत्र है तो सवाल तो गूंजेंगे। जेपी आंदोलन के समय भी कोई इन्हें नहीं रोक पाया था। अन्ना आंदोलन के दौरान भी कोशिशें तमाम हुईं थीं। इरोम शर्मिला ने भी चौदह लंबे वर्षों तक चले अपने अनशन से यही जवाब दिया है।

मगर इसे और गहरायी से समझने की ज़रूरत है। शर्मिला ने जल्दबाजी नहीं की। उन सरोकारों से जुड़े तमाम पक्षों को समझा। केजरीवाल से उनकी मुलाकात तो जाहिर ही है। बड़ी राजनीतिक पार्टियों को किस प्रकार शिकस्त दी जा सकती है, यह जाना। और अब वे अपना अनशन छोड़ लोकतांत्रिक राजनीति के अखाड़े में सामने हैं।

शर्मिला ने ‘प्रजा’ की घोषणा से पहले ही जाहिर कर दिया था कि वे सीधे-सीधे मुख्यमंत्री बनने के लिए राजनीति में आ रही हैं। यह सही भी है। क्योंकि आप जो चाहते हैं वह करने के लिए सत्ता की मुख्य कुंजी आपके हाथ में होनी बहुत जरूरी है। वह कुंजी राज्य स्तर पर किसी मुख्यमंत्री के पास ही हो सकती है। उससे नीचे नहीं।
शर्मिला ने ‘प्रजा’ के ऐलान के साथ ही मुख्यमंत्री ओकराम इबोबी सिंह के मुकाबले थाउबल से अपनी प्रतिद्वंद्विता की मुनादी कर दी। इबोबी थाउबल से पिछले चौदह वर्षों से लगातार चुन कर विधानसभा में पहुंचते रहे हैं। मणिपुर में चुनाव अगले साल होने हैं। लेकिन ओकराम इबोबी के लिए शायद उल्टी गिनती अभी से शुरू हो गई है। उनका भला तो अब शायद राम ही करें।

जनता के सामने तो असीम ऊर्जा से भरी लौह-मानवी इरोम शर्मिला सा बड़ा विकल्प आ गया है। थाउबल के अलावा शर्मिला ने खुराई से भी विधानसभा चुनाव लड़ने का ऐलान किया है। इससे जाहिर होता है कि वे निश्चित तौर पर काफी सोच भरी राजनीतिक तैयारी के साथ मैदान में उतरी हैं। इसका अहसास इसके लिए तय की गई 18 अक्टूबर की तिथि से भी किया जा सकता है। वर्ष 1948 में इसी दिन मणिपुर विधान सभा का पहला सत्र हुआ था।

क्या गुल खिलाएगी इरोम शर्मिला की हुंकार?
What impact will make Irom Sharmila’s challenge?

Written by-सत्यनारायण मिश्र









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