मुर्दों के देश में मुर्दापरस्ती ही तो चलेगी-इरोम शर्मिला


आयरन लेडी इरोम शर्मिला का एनकाउंटर करने के बारे में तय करते हुए मैं हिचक रहा था। मन में खयाल आया कि क्यों न राखी सावंत का एनकाउंटर कर लूँ। वह तो मोदी की तस्वीरों वाली ड्रेस पहनकर सब ओर छाई हुई है। राखी  पब्लिसिटी की इतनी लालची है कि वह तो घर आकर एनकाउंटर करवा लेगी यानी ज़्यादा मशक्कत भी नहीं करनी पड़ेगी। पाठक चटखारे लेकर पढेंगे और लाइक-कमेंट भी खूब मिलेंगे। संपादक जी तो गदगद हो ही जाएंगे। लेकिन फिर मुझे लगा कि जो काम पूरे देश ने किया, मीडिया ने किया, क्या वही मुझे भी करना चाहिए? मेरे ज़मीर ने मुझे धिक्कारा और मैं अपने संपादक की मर्ज़ी के बगैर इंफाल पहुँच गया।

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यहां ये वैधानिक चेतावनी देना ज़रूरी है कि संभव है कि बहुत से पाठकों को इस एनकाउंटर में व्यंग्य का मज़ा न मिले। जिस महिला का संघर्षपूर्ण जीवन पूरे समाज और व्यवस्था पर एक कटु व्यंग्य हो, भला उस पर क्या व्यंग्य किया जा सकता है? पूरे देश ने सोलह साल तक अकेले दम पर उसे लड़ते देखा, उसके संकल्प की तारीफ़ की मगर इससे अधिक कुछ नहीं। कोई ऐसी लहर नहीं उठी जो उसके साथ खड़ी होती और सरकार तथा सेना से कहती काला कानून हटाओ ताकि शर्मिला ही नहीं पूरा मणिपुर आज़ादी की हवा में साँस ले सके। वह मौन दर्शक बना रहा। ये अपने आप में सबसे बडा व्यंग्य है, बशर्ते आप इसे महसूस कर सकें। वैसे पूरी बातचीत के दौरान मैंने पाया कि शर्मिला के हर वाक्य में व्यंग्य भरा पड़ा है।



अस्पताल में शर्मिला शांत बैठी थीं। उनके घुँघराले से बाल बिखरे हुए थे और माथे पर चिंता की लक़ीरें साफ़ दिखलाई दे रही थीं। लेकिन मुखड़े पर कड़े इरादे की झलक भी साफ़ नज़र आ रही थी। मैंने धीरे से नमस्कार किया और पास जाकर बैठ गया। उनकी सेहत के बारे में पूछताछ करने के बाद मैंने सवालों का सिलसिला शुरू किया।

शर्मिला जी आप बहुत चिंतित और दुखी दिख रही हैं। क्या इसलिए कि आपके ही घर वालों और समाज ने आपको ठुकरा दिया है और आप अभी तक अस्पताल में ही हैं? 
अपने लोगों द्वारा ठुकरा दिया जाना तो निश्चय ही पीड़ा की बात है, मगर मुझे उससे बड़ा दुख इस बात का है कि मेरे सोलह साल के अनशन ने भी इस देश की आत्मा को नहीं झकझोरा। न राजनीतिक बिरादरी ने मेरी माँग पर कुछ किया और न ही समाज उद्वेलित हुआ। कभी-कभी मुझे लगता है कि ये बुद्ध, महावीर और गाँधी का देश है भी या नहीं।

देखिए आपकी शिकायत जायज़ है मगर इतनी निराशा क्या ठीक है?
मैं निराश नहीं हूँ मगर हैरत में ज़रूर हूँ, आहत भी हूँ। देखिए कितने पाखंडी हैं हम लोग। हर कोई बोलता है कि अहिंसात्मक रास्ते से वाज़िब माँगे मनवाई जा सकती हैं। मैंने तो यही रास्ता अपनाया था। मगर क्या हुआ? सोलह साल में सशस्र्त्र सेना विशेष अधिकार अधिनियम ज्यों का त्यों बना हुआ है। न मणिपुर की राजनीति जागी न देश की। न मणिपुरियों ने एक होकर कोई आंदोलन खड़ा किया न ही बाक़ी देश से आवाज़ उठी कि अपने ही देशवासियों पर ज़ुल्म क्यों ढाए जा रहे हैं, उन्हें स्वतंत्रता से जीने का हक़ क्यों नहीं दिया जा रहा। उत्तर भारत के लोगों की संवेदनाएं सबसे कमज़ोर हैं। वे राष्ट्रीय एकता की बात तो करते हैं मगर केवल सैन्य अर्थों में। उन्हें भौगोलिक एकता से मतलब है, भले ही अपने देशवासियों की भावनाओं-आकांक्षाओं का दमन होता रहे।

आपने भी तो एकला चलो की रणनीति अपनाई। आपने लोगों को इकट्ठा करने के बजाय, खुद ही अनशन करना शुरू कर दिया?
मैंने सोचा था कि मैं इस देश की नैतिक भावना को अपनी भूख हड़ताल से झकझोर दूँगी और वह खुद-ब-खुद मेरी सच्ची माँग के समर्थन में उठ खड़ा होगा। मगर ऐसा नहीं हुआ।

लेकिन आपने जिस तरह से अनशन तोड़ दिया क्या उससे ये साबित नहीं होता कि अपनी लड़ाई से आपका खुद का विश्वास उठ गया है?
हाँ, बिल्कुल उठ गया है, लेकिन न तो मुद्दे से न लड़ाई से। बस लड़ाई के तरीके के बारे में मेरी मान्यता ज़रूर बदल गई है। अब मुझे लगता है कि जब तक मेरे पास प़ॉवर नहीं होगा, तब तक मैं कुछ बदल नहीं सकूँगी। इसीलिए मैंने कहा कि मैं मुख्यमंत्री बनना चाहती हूँ। मैं मुख्यमंत्री बनकर काले कानून को हटाना चाहती हूँ।


लेकिन आपको शायद पता नहीं है कि मुख्यमंत्री बनकर भी आप ये काम नहीं कर पाएंगी, क्योंकि केंद्र और सेना तब भी आपकी नहीं सुनेंगे? 
हाँ, ये मैं जानती हूं कि मुख्यमंत्री के पास इसे हटाने के अधिकार नहीं हैं, मगर मैं दबाव तो बना सकती हूँ इसके लिए।


आपको लगता है लेकिन आपके प्रदेश के लोगों को नहीं लगता। विद्रोही संगठन तो आपके निर्णय से ख़फ़ा हैं ही, आपके समर्थक भी आपसे दूर चले गए हैं। कोई आपको साथ रखने तक के लिए राज़ी नहीं है?
आपका कहना सही है। असल में मुझे सोलह साल से एक जुझारू औरत के रूप में देखते-देखते लोग मुझे उसी रूप में देखने के आदी हो गए थे। वे चाहते हैं कि मैं उसी तरह एक प्रतीक बनकर जिऊँ और मर जाऊं। वे मुझे देवी बनाकर रखना चाहते हैं। वो मुझे इंसान की तरह भी नहीं जीने देंगे। ये मुर्दों का देश है इसलिए मुर्दापरस्ती ही चलेगी।


देश में इतने बड़े-बड़े परिवर्तन हो रहे हैं और आप कह रही हैं कि ये मुर्दों का देश है? 
हमारा देश पाखंड में नंबर वन है। ये जो परिवर्तन है वह भी पाखंड का ही एक बड़ा रूप है। कहा जा रहा है कि परिवर्तन आम लोगों के लिए हैं, लेकिन फ़ायदा बड़े लोगों का हो रहा है। हमारे नेता भले ही कहें कि भारत सुपर पॉवर बन रहा है, मगर असलियत ये है कि कुछ लोग सुपर पॉवर बन रहे हैं, बाक़ी सब शक्तिहीन, दरिद्र। उनके पास कोई पॉवर नहीं है। ये परिवर्तन नक़ली है।


क्या आपको नहीं लगता कि अगर आप भूख हड़ताल तोड़तीं मगर मुख्यमंत्री बनने की बात न करतीं तो शायद लोग आपका साथ नहीं छोड़ते?
हो सकता है। शायद लोगों को लग रहा है कि मुझमें सत्ता की भूख पैदा हो गई है इसलिए मैं मुख्यमंत्री बनने का ख़्वाब देखने लगी हूं। लेकिन ये सच नहीं है। उन्होंने मुझे आयरन लेडी का ख़िताब दिया है और मैं मुख्यमंत्री बनकर साबित करना चाहती हूँ कि मैं सचमुच में आयरन लेडी हूँ। अगर मैं मुख्यमंत्री बनी तो मेरा हर क्षण उस काले कानून को हटाने में लगेगा और अगर मुझे लगा कि ये संभव नहीं है तो मैं पद से फौरन हट जाऊँगी।

अब आप रूठे हुए लोगों को कैसे मनाएंगी?
मुझे लगता है कि मेरे लोग मुझसे प्यार करते हैं और ज़्यादा दिनों तक मुझसे नाराज़ नहीं रहेंगे। मैं भी उन्हें अपनी बात समझाने की कोशिश कर रही हूँ। मैं देख रही हूँ कि लोगों का रवैया बदल रहा है।


शर्मिला आपने कहा था कि आप प्यार करना चाहती हैं। क्या सोलह साल के एकाकी जीवन की वजह से आपको प्यार की कमी महसूस हो रही है। क्या लोगों की ओर से जो प्यार आपको मिला उसने उस खाली पन को नहीं भरा?


पहली बात तो ये है कि मैं लोगों की इस धारणा को खंडित करना चाहती हूँ कि मैं कोई संत-महात्मा हूं, इंसान नहीं। में इंसान हूँ और इंसान की तरह जीना चाहती हूँ। प्यार करने का मतलब अपने मक़सद को छोड़ देना नहीं है और न ही संघर्ष से भागना है। बल्कि मुझे तो लगता है कि प्यार आपको एक नई ताक़त भी देता है। उससे जो ऊर्जा मिलती है उससे आप अपने संघर्ष की धार को तेज़ कर सकते हैं। दूसरी बात ये है कि लोगों का प्यार आपको हिम्मत तो देता है लेकिन हर आदमी के जीवन के कुछ बेहद निजी कोने होते हैं उन्हें वह हर किसी से साझा नहीं कर सकता। मैं भी किसी ऐसे साथी की तलाश में हूँ जो मेरा अंतरंग हो, मुझे नज़दीक से देखे, समझे और साथ चले।

आपने बहुत बड़ी बात कही है शर्मिला जी। आम लोग जीवन के इस पक्ष को न समझते हैं न महत्व देते हैं। उम्मीद है कि वे आपको समझने की कोशिश करेंगे। अंत में ये बताइए कि अब आगे क्या?
आगे भी संघर्ष है। मैं सोच रही हूँ कि देश भर की यात्रा करूँ, लोगों को बताऊँ कि इस काले कानून ने मणिपुरियों के साथ क्या किया है। मैं कश्मीर सहित देश के उन हिस्सों में भी जाना चाहती हूं जहां ये काला कानून लागू है और इससे लोग त्रस्त हैं। मैं सबको बताना चाहती हूँ कि कैसे ये और इस तरह के कानून लोकतंत्र का, संविधान का और आम अवाम का गला घोंट रहे हैं। मैं पूरे देश और दुनिया से अपील करूँगी इन्हें हटाने के लिए संघर्ष करें, इन्हें कतई बर्दाश्त न करें।

मैंने देखा कि बोलते-बोलते शर्मिला का चेहरा जोश से तन गया है लेकिन वे लंबी-लंबी साँसें भी लेने लगी हैं। ये लक्षण हैं उनकी कमज़ोरी के जो सोलह साल तक कुछ न खाने की वजह से नज़र आ रहे हैं। मैंने महसूस किया कि अब वे बात करने की स्थिति में नहीं हैं इसलिए मन ही मन उन्हें सलामी दी और चुपचाप ये कामना करते हुए चला आया कि शर्मिला अपने संघर्ष में कामयाब हों

Written by-डॉ. मुकेश कुमार













ये व्यंग्यात्मक शैली में लिखा गया काल्पनिक इंटरव्यू है। इसे इसी रूप में पढ़ें।

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