प्रियंका और शीला की जोड़ी यूपी चुनाव में सुपर हिट रहेगी-शीला दीक्षित


उत्तरप्रदेश चुनाव में बतौर मुख्यमंत्री पेश किए जाने के ऐलान से शीला दीक्षित बहुत खुश हैं। पिछले तीन-चार साल से भ्रष्टाचार, घोटाला, जाँच, गिरफ़्तारी, जेल आदि शब्द-शब्द सुन-सुनकर वे परेशान हो चुकी थीं। यहाँ तक कि उन्होंने अख़बार पढ़ना और टीवी देखना तक बंद कर दिया था। लेकिन प्रशांत किशोर की बदौलत अब उनकी चर्चा दूसरी वजहों से भी होने लगी है इसलिए उनका खुश होना स्वाभाविक है। बल्कि वे खुश ही नहीं आशावाद से भी भरी हुई हैं। इसीलिए वे बगैर न नुकुर के एंनकाउंटर के लिए तैयार हो गईँ।
priyanka aur sheela kee jodee yoopee chunaav mein suparahit rahegee
मैं जब पहुँचा तो उनके घर में यूपी के नेताओं की भीड़ लगी हुई थी। ज़ाहिर है कि अधिकांश टिकटार्थी थे और उनमें भी ब्राम्हण ही सबसे अधिक दिखलाई दे रहे थे। दिखलाई इसलिए दे रहे थे कि वे अपनी ब्राम्हण पहचान को उजागर करने का विशेष जतन कर रहे थे। कोई तुलसी की चौपाई बोल रहा था तो कोई संस्कृत का श्लोक सुनाकर अपने ब्राम्हणत्व का प्रदर्शन कर रहा था। वेशभूषा और साज-श्रृंगार से भी उन्होंने ये संदेश देने की कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी।


भीड़ छँटी तो मैंने शीला दीक्षित से पूछा कि ये क्या हो रहा है, क्या काँग्रेस ब्राम्हणों की पार्टी बनने जा रही है?
राजनीति में आवश्यकतानुसार ब्राम्हण, दलित, यादव, मुसलमान, हिंदू बनना पड़ता है। काँग्रेस के लिए आज ज़रूरी हो गया है कि वह यूपी चुनाव में ब्राम्हणों की पार्टी बन जाए, इसलिए उसने ये नई रणनीति अपनाई है।

लेकिन आपकी पार्टी का तो नारा था- न जात पर न पॉत पर, मुहर लगेगी हाँथ पर?
राजनीति में नारे बदलते रहते हैं। एक नारा कुछ समय के बाद पुराना पड़ जाता है। लोग जान जाते हैं कि वह झूठा है, केवल जुमला है। तब एक नया नारा गढ़ना पड़ता है। अगर ऐसा न करें तो राजनीति में बने रहना मुश्किल हो जाएगा। आप अप्रासंगिक हो जाएंगे।

लेकिन आपकी पार्टी तो कहती है कि वह ग़रीबों, शोषतों, वंचितों की पार्टी है। दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों की बात करती है?
बात ही तो करती है और अभी भी हम बात ही तो कर रहे हैं। बातें हैं बातों का क्या। लेकिन ये बताइए कि क्या दलित-आदिवासियों की बात करके, ग़रीबों की बात करके क्या हम कहीं जीत पाए? नहीं जीत पाए। इसलिए लाज़िमी हो गया कि हम बदलें। वैसे भी कांग्रेस पहले भी ब्राम्हणओं के वर्चस्व वाली पार्टी रही है। शोबाज़ी के लिए कुछ लोगों को रखा जाता था बस। कुछ नीतियाँ वगैरा भी बना दी जाती थीं लेकिन सत्ता तो ब्राम्हणों के हाथ मे ही होती थी।

आपको नहीं लगता कि जो सच आप बयान कर रही हैं, उससे पार्टी को नुकसान हो सकता है?
कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है। हमें अगर ब्राम्हणों को जोड़ना है तो उनके विरोधियों के अलग होने का जोखिम तो उठान ही पड़ेगा।

अगर बाक़ी के वर्ग आपसे कट गए तो कहीं ऐसा न हो कि आपके पास कुछ बचे ही न?
ऐसा होगा नहीं। मुझे लगता है कि ब्राम्हणों को पहली बार विश्वास हो रहा है कि उनकी असली पार्टी काँग्रेस है इसलिए वे वापस लौट रहे हैं।

लेकिन अधिकांश ब्राम्हण हिंदुत्व की लहर में बीजेपी के साथ चले गए हैं?
ये आप जैसे पत्रकारों का भ्रम है। ब्राम्हण कभी किसी लहर में नहीं बहता। कभी बह भी जाता है तो फौरन किनारे आकर अपना रास्ता बदल लेता है। वह मुगलों के साथ भी रहा, अँग्रेजों के साथ भी रहा, काँग्रेस के साथ भी रहा, कुछ समय के लिए बीजेपी से भी जुड़ गया है, मगर उसकी स्वाभाविक पार्टी काँग्रेस है, इसलिए घूम-फिरकर उसे यही आना है और आप देखना वो आएगा। उत्तरप्रदेश का चुनाव ये साबित कर देगा।

यूपी में कुल 12 परसेंट ब्राम्हण हैं। आपको कैसे लगता है कि उनके भरोसे आप मुख्यमंत्री बन जाएंगी?
प्रशांत किशोर को पक्का भरोसा है कि ऐसा ही होगा। उसके मुताबिक आज की पब्लिक नेता को देखकर वोट देती है। मेरी जाति देखकर ब्राम्हण आ जाएंगे क्योंकि कोई पार्टी किसी ब्राम्हण को आगे करके चुनाव नहीं लड़ेगी। याद रखिए कि ब्राम्हण अकेले नहीं आता, अपने साथ अपनी सेना लेकर आता है। अगर दस परसेंट ब्राम्हण आ गए तो दस परसेंट दूसरे भी आ जाएंगे। मुसलमानों को भी जैसे ही लगेगा कि काँग्रेस जीत रही है, वे सबको छोड़कर मेरे साथ आ जाएंगे। यूपी का चुनाव जीतने के लिए ज़्यादा नहीं 22-26 फीसदी वोट ही चाहिए। मुझे लगता है कि ये हो जाएगा।

कैसे हो जाएगा ज़रा समझाइए?
अब ये तो प्रशांत किशोर ही समझा सकते हैं, क्योंकि ये उनका ही गणित है। लेकिन मैं अपने अनुभव से कह सकती हूँ कि लोग समाजवादी पार्टी को तो सत्ता से हटा रहे हैं और बीएसपी के प्रति उनका रुझान बहुत अधिक नहीं है। रही बात बीजेपी की तो लोगों को लगता है कि ये जुमलेबाज़ पार्टी है और दंगे-वंगे करवाकर चुनाव जीतने की फिराक में है। ऐसे में काँग्रेस की दाल गल सकती है। और सबसे महत्वपूर्म बात तो ये है कि उसने मुझे भावी मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट किया है। मैं ब्राम्हण भी हूँ और मैंने पंद्रह साल तक दिल्ली को कुशलतापूर्वक चलाया भी है। मतदाताओं को ये बात समझ में आएगी कि यूपी को मेरे जैसा ही नेता चाहिए।

शीलाजी दिल्ली एक छोटा सा, आधा-अधूरा छोटा सा राज्य है, उसे चलाने और यूपी को चलाने में ज़मीन-आसमान का अंतर है। यहाँ की राजनीति बहुत जटिल है, धर्म और जाति के जितने लफड़े यहाँ हैं दिल्ली में वे नहीं हैं। इसलिए दिल्ली के अनुभव के आधार पर आपकी कुशलता का लोहा कोई क्यों मान लेगा?
आप देखिएगा वे ज़रूर मानेंगे। मेरी टक्कर का कोई नेता है ही नहीं। अखिलेश यादव, मायावती मेरे सामने टिक नहीं पाएंगे और बीजेपी को तो सूझ ही नहीं रहा कि वह किसे प्रोजेक्ट करे।

अगर राजनाथ सिंह को उतार दिया तो?
तो क्या, ब्राम्हण नेता के सामने उन्हें कौन स्वीकार करेगा। आप देखिए न, अरसे से किसी पार्टी ने किसी ब्राम्हण को नेता के रूप में प्रोजेक्ट ही नहीं किया। अब मैं आई हूँ तो सारे समीकरण हिल गए हैं।

लोगों को तो लग रहा है कि काँग्रेस ने ऐसे समय में एक रिटायर्ड और उम्रदराज नेता को कमान सौंप दी है जब युवा नेतृत्व की माँग है?
यूपी को युवा मुख्यमंत्री की नहीं युवाओं को समझने वाले मुख्यमंत्री की ज़रूरत है। ऐसे मुख्यमंत्री की ज़रूरत है जो उन्हें अवसर दे, रोज़गार दे, उनकी भावनाओं को समझे। कोई बताए कि युवा अखिलेश ने युवाओं के ले क्या कर दिया है, जो नौजवान उन्हें वोट देंगे। अब मोदीजी अपने आपको युवा कहते हैं और पचहत्तर पार के सब नेताओं को उन्होंने घर बैठा दिया है, मगर क्या युवा उनसे खुश है, बिल्कुल नहीं है। केवल एबीवीपी को छोड़ दीजिए तो हर जगह उनके खिलाफ़ गुस्सा उबल रहा है और वे मौक़े के इंतज़ार में है कि कब उन्हें सबक सिखाएँ। इसलिए उम्र पर न जाइए।

आपको नहीं लगता कि आपके साथ वे घोटाले भी चुनाव प्रचार में चले आएँगे जो दिल्ली में हुए हैं। हर तरफ घोटालों का शोर है। कई की जाँच चल रही है। टैंकर घोटाले में तो आपको नोटिस भी मिल गया है?
ये सब केजरीवाल और केंद्र सरकार की मिलीभगत से हो रहा है। दोनों मिलकर मुझे और काँग्रेस पार्टी को बदनाम करने के लिए अभियान चला रहे हैं। ऐसा लगता है कि दोनों के पास मुझे गालियाँ देने के अलावा कोई काम ही नहीं बचा है। मेरे पास हर आरोप का जवाब है और अगर किसी ने इसे चुनाव में उठाया तो उनका मुँह तोड़ जवाब भी दूंगी।

कहीँ आप अति आत्मविश्वास की शिकार तो नहीं हो रहीं? बहुत सारे लोगों का मानना है कि एक हारी हुई लड़ाई में आपको झोंक दिया गया है, आपको बलि का बकरा बना दिया गया है?
देखिए लोग क्या कहते हैं मैं इसकी परवाह नहीं करती। वैसे भी मैं अपनी पारी खेल चुकी हूँ। अब मुझे बलि का बकरा क्यों बनाया जाएगा ये मेरी समझ से बाहर है। मैं तो इतना जानती हूँ कि गाँधी परिवार मेरी सेवाओं का सम्मान करता है और और उसने मुझे इस लायक समझा कि इस महत्वपूर्ण लड़ाई में जो कि देश का भाग्य बदलने वाली भी हो सकती है, मुझे नेतृत्व के लिए चुना। कोई कुछ भी कहे, मैं तो आभारी हूँ उसकी। आप ये भी तो देखिए कि इतने दिनों से मेरे बारे में नकारात्मक ख़बरे ही छप रही थीं, अब थोड़ा प्रसंग बदल गया है। मेरे लिए ये राहत क्या कम है।

यूपी के चुनाव में प्रियंका गाँधी की क्या भूमिका होगी?
उन्हीं की तो असली भूमिका है। उन्होंने ही मुझसे कहा आँटी तैयार हो जाइए, ये महायुद्ध आपको लड़ना है। मैंने उससे कहा ठीक है मगर आपको सारथी बनना पड़ेगा। वे तैयार हो गईं तो मैंने भी हामी भर दी। उन्होंने ही राज बब्बर को प्रदेश अध्यक्ष बनवाया है। अब वे ज़ोर-शोर से तैयारी कर रही हैं। मुझे उम्मीद है कि प्रियंका और शीला की जोड़ी यूपी चुनाव में सुपर हिट रहेगी।

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