काँग्रेस हाईकमान न सुधरा तो फिर दोहराए जाएंगे उत्तराखंड, अरुणाचल


अरुणाचल प्रदेश की सियासी जंग में केंद्र सरकार और भारतीय जनता पार्टी के रणनीतिकारों की भारी किरकिरी हुई है और वे बुरी तरह से पराजित हुए हैं। उन्हें न माया मिली न राम उल्टे बदनामी हुई सो अलग। मगर इस पूरे घटनाक्रम में काँग्रेस हाईकमान की बड़ी खामियाँ भी उजागर हो गई है।

ऊपर से देखने पर लगता है कि काँग्रेस ने बड़ी जीत हासिल की है, क्योंकि आख़िरकार वह अपनी सरकार बचाने में कामयाब हो गई है। उसे ये भी फायदा हुआ है कि इस लड़ाई में केंद्र का संविधान तथा लोकतंत्र विरोधी रवैया भी देश के सामने आ गया।

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लेकिन काँग्रेस हाईकमान को ये भी नहीं भूलना चाहिए कि ये संकट भी उसी की अड़ियल रवैये की वजह से खड़ा हुआ था। पिछले साल नवंबर-दिसंबर में जब पार्टी में विद्रोह हो रहा था, तो उसने आँखें बंद कर रखी थीं और इस खुशफ़हमी में था कि कुछ नहीं होगा। यहाँ तक कि राहुल गाँधी नेतृत्व परिवर्तन की माँग कर रहे असंतुष्टों से मिलने को भी राज़ी नहीं हुए थे।

विडंबना देखिए कि अब उन्हीं राहुल गाँधी ने विद्रोहियों की शर्त को स्वीकार करके नबाम तुकी से इस्तीफ़ा दिलवाया और प्रेमा खांडू को सत्ता की बागडोर सौंपने का निर्णय भी लिया। अगर उन्होंने उसी समय असंतुष्टों से मुलाकात करके कोई समाधान तलाश लिया होता तो शीर्षासन करने की नौबत ही न आती।

लेकिन अरुणाचल की घटना अकेली नहीं है। काँग्रेस हाईकमान ने पिछले दो-तीन साल में इसी तरह की कई ग़लतियाँ की हैं और उसका नुकसान पार्टी को हुआ है। पहले असम में हिमंतबिश्व सरमा की दावेदारी को उसने अनदेखा किया और पूरा दाँव तरुण गोगोई पर लगा दिया। नतीजा सामने है।

हिमंत ने पार्टी तोड़ी, बीजेपी से हाथ मिलाया और उसे जिताने में महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाई। हिमंत की बदौलत ही बीजेपी के हौसले बढ़े, उसने मिशन 84 का महत्वाकांक्षी लक्ष्य बनया और उसे हासिल भी किया। अगर हिमंत जैसा योद्धा काँग्रेस न गँवाती तो असम चुनाव का नतीजा भी शायद दूसरा होता।

उत्तराखंड में भी काँग्रेस का अंतर्कलह संकट की वजह बना था। हाईकमान उसे सुलझाने में नाकाम रहा। परिणाम ये हुआ कि फाँक बढ़ती चली गई और इसका लाभ बीजेपी ने उठाने की कोशिश की और काफी हद तक वह कामयाब भी हो गई थी।

ये तो बीजेपी की मूर्खता  और सत्ता का लोभ था कि हड़बड़ी में उसने न संविधान की परवाह की और न ही लोकतंत्र की, अन्यथा न तो उसकी बदनामी होती और न ही उत्तराखंड तथा अरुणाचल दोनों जगह उसकी राजनीतिक शक्ति बढ़ गई होती।

सवाल उठता है कि क्या कांग्रेस हाईकमान अपनी इन गलतियों से कोई सबक सीखेगा? ये तो सब जानते हैं कि बीजेपी की नज़र उसकी दूसरी राज्य सरकारों को गिराने पर भी लगी हुई है और पहला मौक़ा मिलते ही वह ऐसा करेगी। इस बार शायद ये काम वह थोडी सावधानी के साथ करे।

अब अगर काँग्रेस नेतृत्व चाहता है कि उसकी सरकारें बची रहें और ठीक ढंग से काम भी करें तो उसे ऐसी व्यवस्था बनानी होगी जो ज़्यादा लोकतांत्रिक और विकेंद्रीकृत हो। अगर सोनिया-राहुल ही सारे फ़ैसले अपनी सनक से लेते रहे तो इस तरह की चूकें होती रहेंगी।

काँग्रेस का जो ढाँचा है उसमें जाहिर है कि पहल भी नेतृत्व को ही करनी पड़ेगी। उसे एक ऐसी संचालन समिति बनानी चाहिए जो राज्य सरकारों के कामकाज और प्रदेश इकाई की एकजुटता दोनों पर नज़र रखे और समय रहते समस्याओं को सुलझाने का माद्दा उसमें हो।

संभावना कम है कि वह ऐसा करेगा, क्योंकि इतिहास इसके उलट कहानी कहता। लेकिन हाईकमान को समझना चाहिए कि भविष्य बदलने के लिए इतिहास से सबक लेक मार्ग भी बदलना पड़ता है।

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