कहा जा रहा है कि वह विधानसभा चुनाव की कमान किसी ब्राम्हण नेता को देना चाहती है, उसे भावी मुख्यमंत्री के रूप में प्रस्तुत करके ब्राम्हणों को रिझाकर अपने पाले में करना चाहती है। अफवाहें इतनी ज़बर्दस्त हैं कि सब इसे सच मानने लगे हैं।
हालाँकि राज बब्बर को प्रदेश अध्यक्ष बनाकर ये जताने की कोशिश की गई है कि पार्टी पिछड़ों की उपेक्षा नहीं करने जा रही, मगर पार्टी के इस क़दम की व्याख्या भी दूसरे तरह से की जा रही है। विश्लेषकों का कहना है कि अध्यक्षता पिछड़े वर्ग के नेता को सौंपने के बाद ब्राम्हण को भावी मुख्यमंत्री के रूप में पेश करने का रास्ता साफ़ हो गया है।
अपुष्ट सूचनाएं बताती हैं कि रणनीतिक सलाहकार या ठेकेदार प्रशांत किशोर ने हाईकमान को ये सुझाव दिया है कि ब्राम्हणों की वापसी से ही पार्टी का भाग्य पलट सकता है। क्या पता हाशिए पर चले गए ब्राम्हण नेताओं ने ही ये प्लॉट रचा हो।
सुझाव चाहे जहाँ से भी आया हो मगर है आत्महत्याकारी ही। अव्वल तो ब्राम्हण अपना पाला तय कर चुके हैं। वे ब्राम्हणवाद के उभार के इस दौर में उस पार्टी के साथ रहना चाहेंगे जो सही मायनों में उसका साथ दे। बीजेपी का रिकॉर्ड इस मामले में काँग्रेस से अच्छा है और पिछले दो-तीन वर्षों में और भी बेहतर हुआ है।
बीजेपी दबे-छिपे ही सही आरक्षण की विरोधी है ये सब जानते हैं। दलितों से भी उसे कोई प्रेम नहीं है। आंबेडकर का जाप वह भले करने लगी हो मगर आंबेडकर के विचारों से वह कोसों दूर है ही। उसने पूरी व्यवस्था को ऐसा रंग-रूप देना भी शुरू कर दिया है जिससे ब्राम्हणवाद की पकड़ मज़बूत हो। यानी वह सही मायनों में उसकी हितैषी है।
यही नहीं, बीजेपी का मुस्लिम विरोध, हिंदुत्ववाद और उग्र राष्ट्रवाद भी ब्राम्हणवादियों को पसंद आता है। वे इसमें ब्राम्हणों का उद्धार देखते हैं। उन्हें लगता है कि राजनीति जितनी हिंदुत्व केंद्रित होगी ब्राम्हणों का महत्व उतना ही बढ़ेगा और बीजेपी के राज में यही हो भी रहा है। इसलिए उनका किसी और पार्टी की ओर देखना संभव नहीं लगता।
ऐसी स्थिति में काँग्रेस अगर किसी ब्राम्हण को नेतृत्व सौंपेगी तो वह केवल दिखावटी होगा, उसकी कोई प्रामाणिकता नहीं होगी। उसके इस क़दम को चुनावी चाल के रूप में ही देखा जाएगा। फिर नेता का सिर्फ़ ब्राम्हण जाति का होना ही काफी नहीं होगा।
ये ज़रूरी है कि नेता विश्सनीय हो, जाना-पहचाना हो और उसमें इतना आकर्षण हो कि वह दूसरी पार्टी द्वारा प्रस्तुत किए जाने वाले मुख्यमंत्री पद के दावेदारों से ज़्यादा दमदार हो। फिलहाल ऐसा कोई नेता पार्टी में दिखलाई नहीं देता।
इस बीच में शीला दीक्षित का नाम उछाला गया था, मगर वे अब चल चुकी कारतूस हैं। मतदाता उनकी ओर आकर्षित होंगे, इसमें भारी संदेह है। युवा मतदाता तो शायद उन्हें पूरी तरह से खारिज़ ही कर देंगे। ब्राम्हणों में भी वे स्वीकार्य नहीं होंगी।
काँग्रेस का ब्राम्हणों के हाथ में जाना दलितों और पिछड़ों को भी रास नहीं आएगा ये तय है। इसका सीधा सा मतलब है जो थोड़े बहुत मतदाता उसके पास बचे हैं वे भी छिटक जाएंगे।
इस क़दम का असर राष्ट्रीय स्तर पर भी पड़ना लाज़िमी है। देश भर के दलितों आदिवासियों और पिछड़ों में ये संदेश चला जाएगा कि काँग्रेस को ब्राम्हणों की ज़रूरत है उनकी नहीं। दलितवादी राजनीति के उभार के इस दौर में तो ये धारणा और भी तेज़ी से फैलेगी।
विरोधी दल तो उसके इस शीर्षासन को और भी जमकर भुनाएंगे। लगभग सभी दल उसके इस पाखंड पर हमले करेंगे और उसे फिर से सुरक्षात्मक रुख़ अख्तियार करने के लिए मजबूर कर देंगे और चुनाव आक्रामकता के बिना जीतना संभव नहीं रहता।
साफ़ है कि काँग्रेस को न माया मिलेगी और न ही राम। पूरी पाने के चक्कर में वह आधी भी खो देगी। ये एक तरह से आत्महत्या होगी। अगर ऐसा हुआ तो इसके बाद उसमें जान फूँकना और भी असंभव हो जाएगा।
वास्तव में काँग्रेस के लिए तो बेहतर यही होगा कि उत्तरप्रदेश में वह ज़्यादा जोखिम न ले, क्योंकि वहाँ के मुख्य खिलाड़ी बीएसपी, एसपी और बीजेपी हैं। वह तो किसी के साथ मिलकर खेल सकती है और जो हासिल हो उसी पर संतोष कर सकती है।
प्रियंका गाँधी को चुनाव में झोंककर भी वह नासमझी कर रही है, क्योंकि यदि प्रियंका अच्छे परिणाम नहीं दे पाईं, जो कि वे नहीं कर पाएंगी तो उन पर भी नाकामी का ठप्पा लग जाएगा। ज़ाहिर है कि वे बाद में उतनी प्रभावशाली नहीं रह जाएंगी।
एक हारी हुई बाज़ी में बड़ी दाँव खेलकर काँग्रेस अपना स्थायी नुकसान कर लेगी ये तय है।