सोच ही नहीं, नेतृत्व का भी संकट है गुजरात भाजपा में


भारतीय जनता पार्टी गुजरात को हिंदुत्व की प्रयोगशाला बताती रही है, लेकिन पिछले पंद्रह साल के शासन के बाद अब राज्य में स्थिति यह है कि वहाँ मुख्यमंत्री पद के लिए ऐसा कोई नेता तक उसे नहीं मिल रहा है जो अगले चुनावों में जीत के प्रति आश्वस्त कर सके।

2014 में जब नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री पद सँभाला तब भी भाजपा को कोई ऐसा नेता नहीं मिला था जो राज्य को संभाल सके। राज्य में मोदी इतने हावी थे कि उनकी करीबी होने के कारण ही आनंदीबेन को मुख्यमंत्री बना दिया गया और उनकी काबिलियत पर कतई ध्यान नहीं दिया गया।

मोदी के गुजरात से हटते ही गुजरात मॉडल की पोल खुलनी शुरू हो गई। संपन्न मानी जाने वाली जाति पटेल भी अपने लिए आरक्षण माँगने लगी और उग्र आंदोलन करने लगी तो आनंदीबेन पटेल को कुछ नहीं सूझा।

भाजपा की समर्थक रहे पटेल जाति के लोग दो साल के अंदर भाजपा के कट्टर विरोधी बन गए। बात यहीं तक नहीं रही, जगह-जगह बने गौरक्षक दलों ने आतंक फैलाना शुरू कर दिया। इसकी चरम परिणति ऊना कांड के रूप में हुई जहाँ मरी गायों की चमड़ी निकाल रहे कुछ दलितों को पुलिस की मौजूदगी में पीटा गया। इसके बाद दलितों का तेज आंदोलन शुरू हुआ जिसके फलस्वरूप आनंदीबेन को त्यागपत्र देना पड़ गया।




आनंदीबेन के हटने के बाद फिर से साबित हो गया कि गुजरात की भाजपा इस समय नेतृत्व के संकट से जूझ रही है। भले ही लंबे समय से आनंदीबेन को हटाने पर भाजपा में विचार चल रहा था, लेकिन जब उन्होंने इस्तीफा दिया तो पार्टी को उनका विकल्प तलाशने में पसीने छूट गए।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ चाहता था कि इस बहाने अमित शाह से राष्ट्रीय अध्यक्ष की कुर्सी खाली करवा लें और उन्हें गुजरात की डूबती नैया पर सवारी करा दें। खुद अमित शाह की इच्छा मुख्यमंत्री बनने की रही है, लेकिन इस समय वो राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में भाजपा शासित सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों की क्लास लगाने की स्थिति में हैं, इसलिए गुजरात जाने में उन्हें हिचक रही। इसके अलावा, गुजरात विधानसभा चुनावों में ज्यादा समय बचा नहीं है और पटेल आरक्षण आंदोलन तथा अब दलित आंदोलन के कारण पार्टी की स्थिति जिस तरह से कमजोर हो गई लगती है, उसमें उन्हें भी यह भरोसा नहीं रहा कि वो पार्टी को दोबारा सत्ता दिला पाएँगे।

अमित शाह को दिल्ली से हटाकर गुजरात भेजने में भाजपा का पूरा एजेंडा ही गड़बड़ा रहा था। उत्तर प्रदेश और पंजाब समेत कई विधानसभाओं के चुनाव सिर पर हैं और तकरीबन हर राज्य में भाजपा का ग्राफ तेजी से गिरता जा रहा है। अगर श्री शाह गुजरात चले जाते तो आगामी विधानसभा चुनावों की रणनीतियाँ धरी रह जातीं। इसके अलावा, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पास भी एक विश्वस्ततम सहयोगी की कमी हो जाती।
अब इसके बाद अन्य विकल्पों पर विचार हुआ तो जातिगत समीकरण आड़े आ गए। पटेलों की नाराजगी भाजपा के लिए जी का जंजाल बनी हुई है। पटेल किसी भी तरह से भाजपा को वोट देने के मूड में नहीं दिखते और किसी पटेल को मुख्यमंत्री बनाना एक तरह से बेकार ही साबित हो जाता। एक दिक्कत यह भी थी कि दो बड़े दावेदार सौरभ पटेल और नितिन पटेल इसी समुदाय के थे। इनमें भी सौरभ पटेल अंबानी परिवार के रिश्तेदार पड़ गए। उन्हें कमान देने का मतलब देश भर में यह संदेश देना होता कि भाजपा सरकार अब सीधे सीधे अंबानी परिवार के हाथ में चली गई है।




एक विकल्प पूर्व प्रदेशाध्यक्ष पुरुषोत्तम रूपाला थे लेकिन वो भी पटेल समुदाय के ही हैं। सौरभ और नितिन के सामने उनकी दावेदारी कुछ कमजोर भी थी और पटेल होना तो एक दिक्कत थी ही। फिर भी, पार्टी ने तमाम सोच-विचार करने के बाद नितिन पटेल को ही कमान सौंपना उचित समझा। हद तो ये हो गई कि ये खबर फैला भी दी गई और दूसरी तरफ भाजपा नेतृत्व अब भी किसी दूसरे विकल्प की तलाश में लगा था।

हास्यास्पद स्थिति तो तब बनी जब नितिन पटेल को लोग बधाइयाँ देने लगे और खुद नितिन बधाइयाँ स्वीकार करने लगे और सबको धन्यवाद देने लगे। यहाँ तक कि टीवी पर इंटरव्यू भी देने लगे। आईबीएन पर प्रसारित इंटरव्यू में तो उन्होंने अपनी प्राथमिकताएँ तक गिनानी शुरू कर दीं।

शुक्रवार दोपहर तक नितिन पटेल गुजरात के विकास को आगे बढ़ाने, सबको शिक्षा, रोजगार, पानी देने की बात करने लगे थे। अधोसंरचना का विकास, नर्मदा परियोजना को जल्द पूरा करने, गाँवों की तरक्की करने जैसे काम अपनी प्राथमिकता में गिनाने लगे थे। और शाम होते-होते खबर आ गई कि नितिन पटेल उप मुख्यमंत्री ही बन पाएँगे और मुख्यमंत्री का पद अमित शाह और मोदी के बेहद करीबी रहे विजय रूपानी को दिया जाएगा। टीवी पर इंटरव्यू में गुजरात के मुख्यमंत्री पद को अपने लिए काँटों का ताज बताने वाले नितिन पटेल को सचमुच इस ताज के काँटें घाव दे गए।

भाजपा को समझ में आ गया कि नितिन पटेल या किसी अन्य पटेल को मुख्यमंत्री बनाना अब डैमेज कंट्रोल करने में मददगार नहीं होगा। दलित आंदोलन से खतरा तो अब तक भाजपा नेतृत्व को समझ में नहीं आया है, लेकिन उसने यह मान लिया है कि आगामी चुनावों में उन्हें पटेल वोटों के बिना ही मैदान में उतरना पड़ेगा।
पूरी घटनाक्रम में नितिन पटेल की अच्छी-खासी किरकिरी हो गई। दिन भर टीवी पर उनके घर बधाइयों और मिठाई बाँटने की तस्वीरें टीवी पर चलती रहीं, और शाम को उप मुख्यमंत्री का पद थमा दिया गया। पटेल समुदाय में जो थोड़ा-बहुत आकर्षण भाजपा में बचा भी रहा होगा, वह भी नेतृत्व की नासमझी के कारण खत्म हो गया।

अब पाटीदार आरक्षण समिति और उसके नेता हार्दिक पटेल अपने समुदाय को ज्यादा अच्छी तरह से समझा सकते हैं कि भाजपा उन्हें आरक्षण भी नहीं देना चाहती और साथ में बेइज्जत भी करना चाहती है।

यहीं पर लगता है कि भाजपा और संघ के पास अब गुजरात को लेकर कोई सोच नहीं बची है। जो पत्ते वह चल रही है, उनकी सफलता पर उसे खुद भी भरोसा नहीं है। लगातार क्षीण होते जनाधार को संभालने वाले नेता भी उसके पास नहीं हैं, और कोई ऐसी नीति भी नहीं है जिसके बल पर वह चुनाव में सशक्त लड़ाई लड़ सके।
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