मुस्लिम ब्रदरहुड और संघ-एक ही सिक्के के दो पहलू


राहुल गाँधी द्वारा मुस्लिम ब्रदरहुड और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तुलना किए जाने के बाद से पूरा संघ परिवार भड़का हुआ है और ये कोई अस्वाभाविक नहीं है। नासमझ भक्तों का उत्तेजित होना भी कोई हैरतनाक़ बात नहीं है। राहुल गाँधी ने काम ही ऐसा किया है। उन्होंने उनकी सबसे कमजोर नब्ज़ पर हाथ जो रख दिया है। उन्होंने ऐसा सच बयान कर दिया है जो जानते तो सब हैं मगर चुप रहने में ही भलाई समझते हैं। कम से कम मुख्यधारा के किसी नेता ने आज तक ऐसा कहने का दुस्साहस नहीं किया है।
मुस्लिम ब्रदरहुड और संघ-एक ही सिक्के के दो पहलू

फिर अगर राहुल कोई आरोप लगाते हैं तो उसे सबसे ज़्यादा चुभते हैं। गाँधी खानदान से उनकी नफ़रत इसकी सबसे बड़ी वज़ह है। राहुल ने एक और काम किया। उन्होंने हिंदुस्तान में नहीं, विदेशी धरती पर ये बात कही। अब मोदीजी ने धरती का चक्कर लगा-लगाकर अपनी एक छवि बनाने की कोशिश की थी, मगर राहुल ने एक झटके में उसे तहस-नहस कर दिया। भारत में अगर वे ऐसा कहते तो मीडिया को मैनेज करके उसके प्रभाव को सीमित किया जा सकता था, लेकिन राहुल ने उसे अंतरराष्ट्रीय बना दिया। ऐसे में उनके लिए मुश्किल खड़ी हो गई कि अंतरराष्ट्रीय मीडिया को कैसे मैनेज करें।

बहरहाल, हिटलर और उसकी पार्टी से संघ की तुलना एक ज़माने से की जाती रही है, मगर संघ उसका आदी हो चुका है। सच तो ये है कि अब वह इसका बहुत ज्यादा विरोध भी नहीं करता। उसने देख लिया है कि उसकी आपत्ति पर कोई कान भी नहीं धरता, क्योंकि कथन में सचाई है। संघ के आदिपुरुष उक्त संगठनों के प्रशंसक रहे हैं, उनसे प्रेरणा लेकर उनकी रणनीतियों पर अमल भी करते रहते हैं। गुरु गोलवलकर की किताब “बंच ऑफ थॉट्स” पढ़कर कोई भी समझ सकता है कि संघ की वैचारिक निर्मिति किस तरह की है।




ग़ौरतलब है कि हिटलर आर्य नस्ल की बात करता था और संघ वाले खुद को आर्यों की ही संतान बताते हैं । इसलिए इस आधार पर भी वे समानता ढ़ूँढ़ कर खुश हो लेते हैं। लेकिन किसी मुस्लिम संगठन और वह भी आतंकवादी मुस्लिम संगठन के समकक्ष रखना उन्हें कैसे गँवारा हो सकता है? वे तो मुसलमानों को ही बर्दाश्त नहीं कर सकते। वे उन्हें सारी समस्याओं की जड़ मानते है। अब अगर उसी से उसकी तुलना की जाएगी तो ज़ाहिर है कि हमलावर हो जाएगा, जैसा कि वह हुआ भी।

लेकिन राहुल गाँधी को अगर परे रखकर वस्तुपरक ढंग से मुस्लिम ब्रदरहुढ तथा संघ में तुलना की जाए तो भी यही निष्कर्ष निकलेंगे कि संघ और उसमें कोई विराधाभास नहीं है, बल्कि दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। ये सही है कि मुस्लिम ब्रदरहुड भले ही शांति के बजाय हिंसक एवं अतिवादी रणनीति का सहारा लेता है। लेकिन क्या आरएसएस ऐसा नहीं करता? वह दिखाता ज़रूर ऐसा है और अगर प्रमाण देने को कहा जाएगा तो मुश्किल भी होगी क्योंकि ये काम वह खुद नहीं करता, समानधर्मा संगठनों से करवाता है।

संघ अपनी छवि सांस्कृतिक संगठन की पेश करने की करता है। वह दावा करता है कि उसका राजनीति से कोई लेना देना नहीं है, मगर ये सफ़ेद झूठ है। सबको पता है कि उसी के स्वयंसेवक बीजेपी में बड़े पदों पर काबिज़ होते हैं। यानी वह एक ट्रेनिंग सेंटर के रूप में काम करता है, उसका काम नेता तैयार करने का है। मुस्लिम ब्रदरहुड ने ये मुखौटा नहीं पहन रखा है। वह राजनीति में सक्रिय है और कुछ साल पहले मिस्र में उसने सरकार बनाई थी।




जिस तरह मुस्लिम ब्रदरहुड समाजसेवा के बहाने अपना आधार बढ़ाने की जुगत करता है, उसी तरह संघ भी। बल्कि सचाई तो ये है कि हर धर्म में ऐसे संगठन हैं जो समाजसेवा का चोला पहनकर पवित्रता का ढोंग करते हैं। ईसाईयों ने तो सेवा के बहाने दुनिया भर में धर्मांतरण का सिलसिला चलाया और आज भी चला रहे हैं। संघ शुद्धिकरण के नाम पर ये काम कर रहा है और ब्रदरहुड भी इसी रणनीति के साथ सक्रिय है।

हो सकता है कि आज की तारीख़ में संघ मुस्लिम ब्रदरहुड से कम हिंसक दिखता हो, मगर पिछले कुछ वर्षों में जिस आक्रामकता के साथ उसने हिंदुत्व का अभियान चलाया है वह यही इशारा करता है कि अगर हालात यही रहे तो अगले कुछ सालों में वह मुस्लिम ब्रदरहुड को पीछे छोड़ देगा। ज़ाहिर है कि अगर ऐसा हुआ तो भारत भी गृहयुद्ध की गिरफ़्त में होगा और हालात कमोबेश मध्यपूर्व की तरह बन जाएंगे।

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Written by-डॉ. मुकेश कुमार
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