गुरमेहर कौर के प्रतिरोध को आवाज़ देने के लिए कोई न्यूज़पेपर, रेडियो या न्यूज़ चैनल तैयार नहीं होता। ख़ास तौर पर तब जबकि वह उस सत्ता प्रतिष्ठान का प्रवक्ता बनकर काम कर रहा हो, जिसके ख़िलाफ़ गुरमेहर अपनी आवाज़ बुलंद करना चाहती हो। लेकिन गुरमेहर ने इसकी परवाह नहीं की। उसने किसी मीडिया संस्थान के दरवाज़े नहीं खटखटाए, कहीं गुहार नहीं लगाई। बस एक पोस्टर लेकर कैमरा के सामने खड़ी हो गई और उसका वीडियो बनाकर सोशल मीडिया पर डाल दिया। यहाँ तक कि उसने अपने मुँह से कुछ बोला भी नहीं। लेकिन उसके इस छोटे से क़दम के सामने सर्वशक्तिमान मीडिया भी एकदम से बौना बन गया।
वह गुरमेहर के पोस्टर से बन रही प्रतिरोध की ख़बर को उठाने के लिए मजबूर हो गया, उसकी अनदेखी करना उसके बस की बात नहीं रही। अलबत्ता उसे अपने मालिकों के प्रति वफ़ादारी निभाना था। उसे गुरमेहर के साथ नहीं, उसके ख़िलाफ़ खड़ा होना था, इसलिए उसने मक्कारी दिखाई। उसने अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की गुंडागर्दी के मुद्दे को परदे के पीछे धकेल दिया और उस विवाद को हवा देने में जुट गया जो किरण रिजिजु जैसे अंधराष्ट्रवादी या वीरेंद्र सहवाग तथा फोगाट बहनों जैसे अधकचरे राष्ट्रवादी साल भर पुराने वीडियो के बहाने उठा रहे थे।
वास्तव में तो वह विवाद भी नहीं था। वह तो एक शहीद की बेटी की घृणा पर जीत की कहानी थी और दो देशों के बीच शांति कायम करने की अपील थी। लेकिन ऐसा कोई भी शक्तिशाली तर्क या तथ्य जो अंधराष्ट्रवादी ताक़तों के अभियान के विरूद्ध जाता है, उसे नेस्तनाबूद करने के लिए घटिया अभियान छेड़ दिया जाता है। इसीलिए गुरमेहर देशद्रोही बना दी गई, उसे पाकिस्तान की हिमायत करने वाली लड़की के रूप में पेश कर दिया गया। उसको रेप तथा गैंगरेप की धमकियाँ दी गईं, भद्दी गालियों से उसे नवाज़ा गया। और ये वही लोग कर रहे थे जो नारी को देवी बताते हैं और हिंदू संस्कृति की महिमा गाते हुए सत्ता की सीढियाँ चढ़ने की कोशिश करते हैं।
अब ये सवाल उठाना बेमानी है कि मीडिया क्या कर रहा था, क्योंकि वह अपनी भूमिका अब खुद तय नहीं करता। वह तो सत्ता-केंद्रों से आने वाले संकेतों और निर्देशों को पढ़ता है, अपने स्वामियों के आर्थिक-राजनीतिक एजेंडे का ध्यान रखता है। इसलिए ये लाज़िमी था कि वह उन पर सवाल न करे जिस ओर एक दुस्साहसी लड़की इशारा कर रही थी, बल्कि उसे ही कठघरे में खड़ा कर दे, ताकि वह डर जाए और कल को कोई दूसरा भी विरोध करने की हिम्मत न जुटा सके। लेकिन गुरमेहर डरी नहीं। उसने अभियान से खुद को अलग ज़रूर कर लिया लेकिन मैदान नहीं छोड़ा और बहुत सारे लोगों के लिए प्रेरणा भी बन गई। लोकतंत्र, आज़ादी और शांति के लिए जारी लड़ाई में वह एक योद्धा बनकर उभरी। उसका होना ही सत्ताधारियों और उनकी मंशाओं के लिए चुनौती है। वह उस मीडिया के लिए भी चुनौती है जो अभव्यिक्ति की स्वतंत्रता के लिए खड़े होने के बजाय उस पर रोक लगाने वालों के क़दमों में बिछ गया है।
ये पहली बार नहीं है जब मीडिया ने उन लोगों का साथ दिया है जो लोकतंत्र का गला घोंट रहे हैं। वह बराबर उनके ख़िलाफ़ खड़ा हो रहा है जो नागरिक अधिकारों की बात करते हैं, देश की एकता के अंदर आज़ादी की बात करते हैं। हैदराबाद यूनिवर्सिटी से शुरू हुआ सिलसिला, जेएनयू, बीएचयू और अलीगढ़ यूनिवर्सिटी से होता हुआ दिल्ली विश्वविद्यालय तक जा पहुँचा है और हर जगह एक ही गिरोह है जो नफ़रत तथा हिंसा के बल पर अपने राजनीतिक आकाओं के एजेंडे को आगे बढ़ा रहा है। देश भर के विश्वविद्यालयो में इसकी अनुगूंज सुनी जा सकती है।
छात्र इस गुंडागर्दी के खिलाफ़ संगठित हो रहे हैं, विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं, लाठियाँ खा रहे हैं। मीडिया के बड़े हिस्से का रुख़ इन सब घटनाओं में पक्षपातपूर्ण रहा है। वह कानून के साथ नहीं उसे तोड़ने वालों के साथ खड़ा है। पहले से ही ध्वस्त हो चुकी विश्वसनीयता इससे मलबे में तब्दील होती जा रही है। ये न तो मीडिया के लिए अच्छा है और न ही लोकतंत्र के लिए, लेकिन शायद शासकों को लोकंतंत्र की ज़रूरत नहीं है और मीडिया उन्हें बंधुआ चाहिए। इसलिए दोनों को बीच एक दुरभिसंधि कायम हो गई है। अब ये गँठजोड़ हमें कहाँ ले जाएगा इस बारे में सोचना बहुत मुश्किल नहीं है।
ग़ुलाम मीडिया को गुरमेहर की चुनौती
Written by-डॉ. मुकेश कुमार
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