काल के प्रवाह में कोई खंड ऐसा भी आता है जब भक्तों की आस्था विकट रूप धारण कर लेती है। उन्हें भगवन-भजन के सिवाय कुछ सूझता नहीं है। यही नहीं, वे अपने भगवान की किसी तरह की निंदा-आलोचना सहन नहीं करते। उन्हें अपने भगवान श्रेष्ठ लगते हैं और दूसरों के भगवान सहन नहीं होते, इसलिए वे संगठित होकर अपनी भक्ति का सार्वजनिक प्रदर्शन करने निकल पड़ते हैं। उन्हें विश्वास होता है कि भगवान के रक्षार्थ वे जो महान काम कर रहे हैं उससे वह प्रसन्न होगा, उन्हें वरदान देगा। यही वह कालखंड है जिसे भक्तिकाल के रूप में दर्ज़ किया जाता है। भक्तिकाल में भक्ति-रस में सराबोर चरित लिखे जाते हैं, महागाथाएं-महाकाव्य रचे जाते हैं।
ये महादेश भी इस समय भक्तिकाल से गुज़र रहा है। एक संक्रामक रोग की तरह भक्ति चहुँ ओर फैल रही है। भगवान, भक्ति और भक्तों का बोलबाला हो गया है। भक्तगण भक्तों की लीला से मुग्ध हैं, वे उनकी महिमागान में डूबे हुए हैं। ऐसे में स्वाभाविक है कि बहुत से पत्रकार भी भक्ति मार्ग पर चल पड़ें। भक्तों की भावना से अभिभूत होकर वे भी भक्तोचित व्यवहार करने लगें। बल्कि बहुत से पत्रकार तो परमभक्त बनकर भगवान को रिझाने में लगे हुए हैं। उनकी आरती उतार रहे हैं, उनके लिए कागद कारे कर रहे हैं। वे उन्हें चंदन और खुद को पानी बता रहे हैं, उनको मोती और खुद को धागा बता रहे हैं। उन्हें लगता है कि उनके दिये में भगवान की भक्ति का ही तेल है इसलिए उसकी ज्योति दिन रात बर रही है। वे प्रभु को घन मानकर मोर हो गए हैं और बेमौसम भी नाचे जा रहे हैं। उन्हें लग रहा है कि अपनी भक्ति से वे भगवान को खुश कर लेंगे और वहाँ से जो प्रसाद रूपी फल प्राप्त होगा उससे वे अमर हो जाएंगे।
इस भक्तियुग का मीडिया भगवान और उनके भक्तों से डरा हुआ मीडिया भी है। भक्तों की मंडली ऐसे मीडिया संस्थानों एवं पत्रकारों को बर्दाश्त नहीं करती जो उनसे डरें न, उनके हिसाब से चलें न। भक्तगण ऐसों पर नज़रें गड़ाए रखते हैं और उन्हें तुरंत धर्मद्रोही घोषित कर देते हैं। इन परिस्थितियों में ये स्वाभाविक ही है कि वे भयाक्रांत होकर जय-जयकार करने लगें। वैसे भी प्रभु का जो वर्तमान रूप है वह क्रोधावतार का है। इस अवतार में प्रभु की भृकुटियाँ विरोधियों और आलोचकों के प्रति इस अंदाज़ में तनी रहती हैं कि किसी ने गुस्ताखी की नहीं और वे बाण बरसाना शुरू कर देंगी।
वैसे भगवन उदार भी बहुत हैं, मगर केवल अपने भक्तों के प्रति। वे भक्त पत्रकारों को ही साक्षात्कार देते हैं। भक्त पुरस्कार सम्मानित-पुरस्कृत होते हैं। बड़े-बड़े पदों को शोभा बढ़ाते हैं। उनके इशारों पर भक्तमंडली भक्ति के प्रमाणपत्र भी बाँटती रहती है। बहुत सारे पत्रकारों को लगता है कि भक्ति का प्रमाणपत्र बड़े काम का है। इससे एक तो सुरक्षा मिल जाती है, दूसरे भगवान के दरबार में प्रतिष्ठा भी बढ़ती है, जिसका मतलब है प्रसाद प्राप्ति की संभावनाओं का विस्तार। इसलिए वे गाते रहते हैं प्रभुजी तुम स्वामी हम दासा। पत्रकारों का, मीडिया का दास के रूप में रूपांतरण हो रहा है।
भक्तिकाल के मीडिया में दासत्व की भावना भरती जा रही है। वह दिन-रात स्वामी के प्रति अपनी निष्ठा प्रकट करता रहता है। स्वामी को अगर असत्य पसंद है तो वह असत्य प्रचारित करता है। स्वामी को अगर हिंसा पसंद है तो वह हिंसक हो जाता है। वह एक नया भक्ति आँदोलन शुरू करने का साधन भी बन रहा है। भक्ति का नया मार्ग वह दिखा रहा है। वह दावा कर रहा है कि इस भक्ति से ही शक्ति मिलेगी और मुक्ति भी। कहने का मतलब ये है कि वह स्वामी की इच्छानुसार व्यवहार करता है। आप चाहें तो कह सकते है कि इस भक्तिकाल के ज़रिए मीडिया में दासयुग आ चुका है।
भगवान और भक्त हमेशा रहे हैं और शायद महाप्रलय आने तक रहेंगे भी। क्या पता उसके बाद वह फिर से पैदा हो जाए। आख़िर भक्तों को कोई न कोई भगवान तो चाहिए ही, क्योंकि बिना भगवान के उनका काम नहीं चलता, इसलिए वे कल्पनाओं से गढ़ लेंगे। ये सिलसिला अटूट है। भगवान से मुक्ति का रास्ता अभी तक मानव समाज खोज नहीं पाया है। भगवान की माया ही कुछ ऐसी है। वे सुख और दुख दोनों में बने रहते हैं। सुखी हुए तो सुख बनाए रखने के लिए और दुखी हुए तो दुख दूर करने के लिए। जब सुख-दुख से मुक्ति नहीं तो फिर भगवान से कैसे मुक्ति होगी? लिहाज़ा मीडिया की मुक्ति भी संभव नहीं दिख रही।