करीब पचीस साल पहले सन् 1991 में खाड़ी युद्ध छिड़ा था और अमेरिकी न्यूज़ चैनल सीएनएन ने उसका जीवंत प्रसारण शुरू किया। पूरी दुनिया में इस भीषण युद्ध को ड्राइंग रूम में बैठकर टीवी के परदे पर देखने का मौक़ा पहली बार मिला। भारत में उस समय केबल टीवी आया ही आया था और सीमित शहरों में ही उसे देखने की सुविधा थी। लेकिन कौतूहल ज़बर्दस्त था इसलिए जिनके घर में टीवी नहीं थे, उन्होंने कहीं और इंतज़ाम किया। जो लोग संपन्न थे उन्होंने तो पाँच सितारा होटलों में कमरे बुक करवाए और युद्ध का मज़ा लिया। जी हाँ, मज़ा लिया। बेशक़ इराक़ी जनता के लिए वह विभीषिका थी, मगर शेष विश्व के लिए मनोरंजन था। एक नए किस्म का मनोरंजन, जिसमें वे महाबली के शस्त्रों और युद्ध कौशल का नज़ारा देख सकते थे, उसका आनंद उठा सकते थे।
इस एक घटना ने सीएनएन को दुनिया भर में प्रसिद्ध कर दिया। वह एक अंतरराष्ट्रीय चैनल के रूप में स्थापित हो गया। खाड़ी युद्ध के प्रसारण के बाद में सीएनएन इफेक्ट का नाम दे दिया गया क्योंकि आगे चलकर ये प्रवृत्ति बन गई। तमाम चैनलों को समझ में आ गया कि युद्ध का लाइव कवरेज बिकाऊ माल है। हालाँकि ऐसा नहीं है कि इसके पहले युद्धों की रिपोर्टिंग नहीं हुई। पहले रेडियो तथा प्रिंट में और फिर टीवी आदि के लिए भी युद्ध कवर किए जाते थे, मगर लाइव के तत्व ने उसमें नया और सर्वाधिक मनोरंजनात्मक आयाम जोड़ दिया। ये एक ऐसा मनोरंजन था जिसकी तुलना किसी दूसरे मनोरंजन से नहीं की जा सकती थी।
सीएनएन के युद्ध प्रसारण ने दो काम और किए एक तो बड़े पैमाने पर दर्शक बनाए और दूसरे युद्ध का एक बड़ा बाज़ार खड़ा कर दिया। लाइव युद्ध देखने के बाद दर्शकों को युद्ध का मज़ा लेने की लत लग गई जिसकी वजह से तमाम चैनल युद्ध और उससे जुड़े कवरेज बढ़ाने लगे। उन्होंने इसे अपनी थाली में विशेष व्यंजन की तरह सजाना शुरू कर दिया। दूसरी ओर, हथियारों के सौदागर, उनके लिए लॉबिंग करने वालों और तथाकथित रक्षा विशेषज्ञों के लिए भी ये महान अवसर बन गया। इन्होंने अपने-अपने तरीकों से इस अवसर को भुनाने की कोशिशें शुरू कर दीं। युद्ध के सौदागरों को युद्ध चाहिए क्योंकि तभी तो वे अपनी सामग्री बेंच सकते हैं, इसलिए उन्होंने मीडिया का सहारा लेना शुरू किया और अपने लिए काम करने वालों तथा रक्षा विशेषज्ञों पर डोरे डालने शुरू कर दिए।
आज न्यूज़ चैनलों और दूसरे जन माध्यमों पर आप जो युद्धोन्माद देख रहे हैं वह सीएनएन के इफेक्ट से पैदा होने वाले तरह-तरह के प्रभावों का ही परिणाम हैं। सीएनएन तथा उसके बाद पश्चिमी दुनिया के मीडिया ने जिस तरह से युद्ध को दिखाना शुरू किया और उसमें तरह-तरह के दुराग्रहों को प्रचारित किया जाने लगा उसी का जवाब देने के लिए अल जज़ीरा की शुरूआत हुई। वह जल्दी ही लोकप्रिय भी हो गया, क्योंकि वह पश्चिम के युद्ध विमर्श का जवाब दे रहा था। लेकिन ये भी सच है कि उसमें भी युद्ध से जुड़ी सामग्री भरी रहती है। हालाँकि इसकी एक वजह ये भी है कि वह जहाँ से प्रसारित होता है, उसके चारों ओर युद्ध ही युद्ध है। अल जज़ीरा के अरबी संस्करण की सफलता का ही नतीजा था कि जल्दी ही अँग्रेज़ी में भी प्रसारण शुरू हो गया और उसे भी असाधारण लोकप्रितयता मिली।
अब चूँकि युद्ध और युद्ध से जुड़ी सामग्री की माँग थी इसलिए उसका उत्पादन भी किया जाने लगा। छोटे-छोटे विवादों को हवा दी जाने लगी और कूटनैतिक समाधानों के बजाय जंग की वकालत की जाने लगी। इस प्रक्रिया ने युद्धवादी राजनीति को भी बढ़ावा दिया। आज भारत और समूचे विश्व में राष्ट्वाद को जो उभार हम देख रहे हैं वह इसी का नतीजा है। मीडिया, राजनीति और युद्ध-प्रतिष्ठान इन तीनों ने समूचे विश्व में टकरावा और हिंसा का माहौल बना दिया है। ज़ाहिर है इन तीनों के पीछे वे आर्थिक नीतियाँ तो हैं ही जो प्रभु वर्ग द्वारा लागू की या करवाई जा रही हैं।
भारतीय टेलीविज़न भी इसीलिए युद्ध का समर्थक नज़र आ रहा है। उसके द्वारा पैदा किया जा रहे युद्धोनम्माद के लिए कुछ पत्रकार और ऐंकर ज़िम्मेदार नहीं हैं। वे तो कठपुतलियाँ हैं। उनकी डोर कहीं और है और वे किन्हीं और लोगों के इशारे पर करतब कर रहे हैं। इसलिए इन पर चाहे जितना प्रहार कर लीजिए, मीडिया का चरित्र नहीं बदलेगा। वह तो तभी बदलेगा जब अर्थनीतियाँ बदलेंगी, राजनीति बदलेगी।
मीडिया को जंगखोर किसने बनाया?
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Written by-डॉ. मुकेश कुमार
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