हिंदी में इस समय छोटी पत्रिकाओं की बहार है। हर डाक में एक आती है। वे दिन गए जब वे उग्र, लेकिन कृशकाय होती थीं। अब वे मोटी-ताजी,बढ़िया काग़ज़ पर छपी और प्राय: सुदर्शन होती हैं।
उनमें से ज़्यादातर की उग्रता अब मुद्दों पर या वैचारिक-बौद्धिक नहीं, बहुत कुछ व्यक्ति-केंद्रित है। पता नहीं कैसे यह धारणा फैलती जा रही है कि साहित्य पर दिल्ली वालों ने कब्ज़ा कर लिया है और वहाँ कुछ लोग मठाधीश बन गए हैं, जिनकी कई पत्रिकाएं अब टोपियाँ उछालने और कुर्सियाँ यानी आसन हिलाने में व्यस्त होने को अपना ज़रूरी काम मानती हैं। किसी हद तक इसका औचित्य भी है। अगर दिल्ली हिंदी की बहुकेंद्रिकता को खंडित या सीमित कर रही है और साहित्य के अन्य केंद्रों को हाशिए पर ढकेल रही है तो इस वर्चस्व पर प्रहार ज़रूरी है। पर क्या इतना हिंदी में बहस की परंपरा को बनाए रखने के लिए काफी है?
यह कहना कठिन है कि इस समय हिंदी में क्या बहस या बहसें चल रही हैं। ज़्यादातर लोग बहस में नहीं पड़ना चाहते। उसे एक ग़ैर ज़रूरी बौद्धिक व्यसन मान लिया गया है। बहस से भला क्या हासिल होता है? किसी बहस का साहित्य में, आज तक भला किसी समाधान या समन्वय में समापन हुआ है? स्त्री -विमर्श और दलित-विमर्श पर बहसें बासी पड़ चुकीं। जो लोग अब भी यथार्थवाद बनाम कलावाद के द्वैत और द्वंद्व में उलझे हुए हैं, वे भी कोई नया तर्क या तथ्य सामने लाते नीं दिखते। ऐसी कोई कृति भी सामने नहीं है, जिसे लेकर कोई बड़ी बहस उकसती हो जैसी कि कुछ दशकों पहले दिनकर की काव्यकृति "उर्वशी" को लेकर हुई थी। बल्कि कृतियों को लेकर बहस का हिंदी में इतिहास बहुत उत्साहवर्द्धक नहीं कहा जा सकता। ऐसी कृतियों की संख्या बड़ी है, जिनको लेकर कोई ख़ास बहस नहीं हुई। उदाहरण के लिए राम की शक्ति पूजा, शेखर-एक जीवनी. अँधेरे में, नौकर की कमीज़ जैसी लगभग क्लैसिक मान ली गई कृतियों पर कायदे से कोई बहस नहीं हुई। बहस न होना क्या संवादहीनता का प्रमाण है। किसी हद तक। सार्वजनिक संवाद हिंदी में लिखित परंपरा से अपसरित होकर वाचिक परंपरा में चला गया है। वहीं उसमें कुछ जीवंतता और गरमाहट दिखाई, बल्कि सुनाई पड़ती है। आलोचना को हमेशा ही यह खतरा बना रहता है कि उसे प्रशंसा-निंदा में घटा दिया जाए। अब यह खतरा या आशंका नहीं रह गए हैं, बल्कि लगभग वस्तुस्थिति बन गए हैं। आजकल कीर्तियाँ भी इस आधार पर बनती हैं कि किसने किस पर कोई प्राणघातक यानी छविभंजक हमला किया। कुछ आलोचक तो ऐसे मिल जाएंगे जिन्होंने सिवाय इसके कुछ किया ही नहीं है। इसका भी महत्व कम होता जा रहा है कि आपकी दृष्टि क्या है-विचारधारा के समापन का यह दुखद प्रमाण है। महत्व इस बात का अधिक है कि आप किसके साथ और किसके विरूद्ध हैं। यह कहा जा सकता है कि साहित्य में यह बौद्धिक अवनति और लगभग संवादहीनता का दुखद अंतराल है। आरोप-प्रत्यारोप, लांछन, भंडाफोड़,निंदा-प्रशंसा आदि बचे हैं, बहस ख़त्म हो गई है। या शायद यह कहना कम अतिरेकी लगे कि स्थगित हो गई है।
र्मों के बीच खुला संवाद हो
यह विचार नया नहीं है। जहाँ तक याद आता है पहली बार इसे बनाने-बुलाने का सुझाव सार्वजनिक रूप से दार्शनिक रामचंद्र गाँधी ने दिया था। तब बाबरी मस्जिद के ध्वंस का मामला बहुत गरम था और वे चाहते थे कि सभी धर्मों की एक संसद बुलाई जाए, जिस पर इस मसले पर खुले मन से विचार हो और कोई समाधान, यथासंभव सर्वसम्मत, निकले। वह मामला इस बीच ठंडा पड़ गया था। लेकिन अब लिब्रहान चाँच आयोग की अतिविलंबित रिपोर्ट के कारण ऍसमें फिर उफान आने या लाए जाने के आसा हैं। आसार न भी हों, ऐसी आशंका तो है ही।
भारत में राज्य तो धर्म या पंथनिरपेक्ष है, संवैधानिक सिद्धांत के आधार पर, लेकिन समाद धर्मनिरपेक्ष नहीं है। यह वांछनीय है कि नहीं, इस पर बहस हो सकती है। पर इस सचाई से इंकार नहीं किया जा सकता कि भारतीय समाज में धर्म गहरी सामाजिक-नैतिक हैसियत रखते हैं, उनके अपने व्यापक सामाजिक संगठन और रीति-रिवाजहैं, आचरण-संहिताएँ और नियम-अनुशासन हैं। यह सही है कि इसी समाज में धर्मों की बहुलता है, उनमें जब-तब विवाद, नोंक-झोंक और परस्पर द्वंद्व के बावजूद कुल मिलाकर अटूट और अदम्य सर्वधर्म समभाव भी रहा है। लगता यह कि चूँकि इसी समाज में धर्म का खुल्लमखुल्ला राजनीतिक उपयोग वाली कई शक्तियाँ और संगठन सक्रिय हुए हैं और उनमें से कुछ को भारतीय राजनीति में वर्चस्व बनाने तक अवसर मिल चुका है और कईयों को चुनाव आदि में जीतकर लोकतांत्रिक स्वीकृति भी जब-तब और जहाँ-तहाँ मिलती रही है, समय आ गया है कि धर्मों के बीच संवाद और सहकार के, परस्पर समझ और विश्वास को नियमित और संगठित रूप दिया जाए। ऐसी पहल की जाए कि भारत के सभी धर्मों और उनके प्रमुख पंथों के प्रमुखों और मुखर-चिंतनशील प्रतिनिधियों को लेकर एक धर्मसभा या संसद गठित की जाए। यह सभा वर्ष में कम से कम दो बार मिल बैठे और ऐसे मुद्दों पर विचार-विमर्श करे जो देश के विकास, सहिष्णुता के माहौल, धार्मिक सद्भाव, सांप्रदायिक भाईचारे आदि से संबंधित हो जाए और जिनके आधार पर ठोस सामाजिक कदम उठाए जा सकें।
इस पर आगे विचार किया जा सकता है कि ऐसी सभा का गठन अनौपचारिक ढंग से किया जाए या कि इसे कानूनी रूप दिया जाए। पर धर्मों को व्यापक सामाजिक-राजनीतिक संवाद में शामिल कर हम शायद उनके राजनीतिक दुरूपयोग को रोक-थाम सकते हैं। किसी हद तक उनकी कट्टरता या उनके अंदर सक्रिय कट्टर तत्व सार्वजनिक रूप से सामने लग सकती है। धर्मों को उनके हाल पर नहीं छोडा जा सकता, क्योंकि वे हमें हाल पर नहीं छोड़ते और जब-तब कुछ कर गुजरते हैं या किए जाने को बढ़ावा देते हैं, जिससे हमारा हाल खराब होता है। नक्सलियों, उग्रवादियों से संवाद हो सकता है और होना ही चाहिए तो धर्मों से क्यों नहीं? और नियमित रूप से खुले में क्यों नहीं?