मेरे अपने पूर्वग्रह


सबके पूर्वग्रह होते हैं-संतों और ईश्वर को छोड़कर। या शायद संतों के भी होते हैं, भले आध्यात्मिक। कुछ लोग उन्हें खुले मन से स्वीकार करते हैं, कुछ उन्हें चतुराई या जतन से दबा-छिपाकर रखते हैं।
प्राय: हरेक को लगता है कि उसके पूर्वग्रह सच्चे-खरे और वस्तुनिष्ठ हैं। अकसर यह भी लगता है कि दूसरों के पूर्वग्रह वैस नहीं हैं, वे पक्षपात, वफ़ादारी, द्वेष.ईर्ष्या आदि से उपजे हैं।

बरसों से अपने पूर्वग्रहों को जगज़ाहिर करता रहा हूँ-कुछ तो याद होगा कि अपनी पत्रिका का नाम ही पूर्वग्रह रखने की हिमाकत या उद्वत्तता कर चुका हूँ। इधर सोच रहा था कि उनमें से कौन से हैं, जिन्हें तजना-छोड़ना आज भी नहीं चाहूँगा, भले यह अपरिवर्तनीयता बौद्धिक दृष्टि से कितनी ही निंदनीय हो। ऐसे लोग मिलते रहते हैं, जिनक पास मेरे किसी पूर्वग्रह के विरूद्ध ठोस तर्क होते हैं। पर मुश्किल यह है कि पूर्वग्रह पूरीतरह से बौद्धिक नहीं होते-वे बुद्धि के अलावा भावना से भी उपजते हैं।
नई कविता में अज्ञेय-मुक्तिबोध-शमशेर की त्यी पहला पूर्वग्रह है-जिस पर मैं रूढ़ हूँ। अज्ञेय की कविता, उनके प्रखर गद्य के मुकाबले, शेखर-एक जीवनी और कुछ कहानियों की तुलना में, मुक्तिबोध की कविता अपने सारे अटपटेपन, अधूरेपन और भाषा पर पर्याप्त अधिकार न होने के बावजूद और शमशेर की कविता अपनी स्वल्पता और रूमानियत के बावजूद बड़ी कविता नहीं है, यह मानने को तैयार नहीं हूँ।
हिंदी आलोचना में कृतिकार-आलोचकों की त्रयी अज्ञेय-मुक्तिबोध-निर्मल वर्मा एक और पूर्वग्रह है। उनके आलोचना के अवदान को आम तौर पर स्वीकार नहीं किया जाता है जबकि मेरी नज़र में अवधारणा, विचार और विश्लेषण सभी स्तरों पर इस त्रयी का काम बहुत मूल्यवान है। इनमें से हर एक मूर्धन्य कृतिकार के रूप में प्रतिष्ठित है, पर इससे आलोचना के क्षेत्र में उनकी भूमिका को अवमूल्यित नहीं किया जा सकता। हिंदी कथा-साहित्य में कृष्णा सोबती-निर्मल वर्मा-कृष्ण बलदेव वैद की त्रयी ने कथा भाषा, कथादृष्टि, कथाशिल्प के क्षेत्र में जो नई संवेदनशीलता, निर्भीकता, प्रयोगधर्मिता, साहसिकता और कल्पनाशीलता चरितार्थ की है, उसने हिंदी कथा ही नहीं संभवत: भारतीय गल्प के भूगोल को मौलिक ढंग से बदला है।

कविता की अगली पीढ़ी में रघुवीर सहाय-श्रीकांत वर्मा-विजयदेव नारायण साही की त्रयी, मेरे हिसाब से (या मेरे पूर्वग्रह के अनुसार) बनतीहै। रघुवीर जी ने कविता की भाषा बदलते हुए उसे गद्य के नज़दीक किया और कविता में लोकतांत्रिक स्वतंत्रता और प्रश्नवाचकता की जगह बढ़ाई: श्रीकांतजी ने अपने क्षोभ और समकालीन नरके के बोध को विन्यस्त करने के लिए अपना अनूठा शिल्प विकसित किया, सत्ता की अंतत: विफलता को शास्त्रीय संदर्भ दिया और साही जी ने कविता की वैचारिक सघनता और प्रश्नशीलता में विस्तार किया। यह भी एक पूर्वग्रह है कि हमारी पीढ़ी के कृतिकार-आलोचकों के बाद यानी मलयज, रमेश चंद्र शाह और विष्णु खरे के बाद कवि-आलोचक तो हुए हैं, पर उन्हें किसी अवधारणा, नई पदावली या समझ के लिए याद करना मुश्किल है। साहित्य के समकक्ष और कई बार उससे अधिक सशक्त शास्त्रीय संगीत, नृत्य,रंगमंच,ललित कलाएं, लोक आदिवासी कलाएं, समकालीन रचनाशीलता का प्रभावशाली और विचारोत्तेजक इजहार है। उनकी हिंदी आलोचना द्वारा उपेक्षा या कि उस पर सरसरी टिप्पणियाँ हमारी आलोचना की विपन्नता का प्रमाण हैं। 

इस पूर्वग्रह में संशोधन करने का कोई कारण नज़र नहीं आता। हिंदी साहित्य का अधिकांश दरअसल साहित्यवादी है और उसे साहित्य से पार देख सकने की ताब अकसर नहीं रही है, यह एक उपपूर्वग्रह कहा जा सकता है-दो उपसर्गों के एक साथ उपयोग के लिए क्षमा चाहते हुए।
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