कहाँ चीन और कहाँ हम


इस पर बहस की गुंज़ाइश है कि हम आर्थिक विकास के मामले में चीन से स्पर्धा कर पा रहे हैं या नहीं। बरत के मुकाबले चीन का आज की दुनिया में अधिक दबदबा है, इसमें शक करने की गुंज़ाइश नहीं है।

यह भी लगभग असंदिग्ध है कि चीन संसार में अपने सांस्कृतिक प्रक्षेपण में हमसे कहीं आगे है। उसका प्रक्षेपण अधिक सुनियोजित, लगातार और साधन-संपन्न है यह भी स्पष्ट है। इसका तीखा अहसास हुआ पिछले बरस जून में,जब अँग्रेज़ी अखडबार द इंटरनेशनल हेराल्ड ट्रिब्यून ने अपने एक अंक में लगभग आधा पृष्ठ में उस सप्ताह संसार भर में हो रही महत्वपूर्ण प्रदर्शनियों का एक विवरण प्रकाशित किया। आइसलैंड,अमेरिका,यूरोपीय देशों,जापान आदि के लगभग बीस बड़े संग्रहालयों और वीथिकाओं को लेकर यह विवरण था। बीस प्रदर्शनियों में से चौदह चीनी कला से संबंधित थीं। प्राचीन कला, चीनी हस्तशिल्प, चीनी शोभा वस्तुएं, मध्यकालीन कला, आधुनिक कला आदि पर केंद्रित प्रदर्शनियाँ आइसलैंड की राजधानी से लेकर पेरिस,म्यूनिख,लंदन, मैक्सिको सिटी,लास एंजिलिस आदि नगरों में आयोजित थीं।

इस संदर्भ में हमारा क्या हाल है..भारतीय कला की, खासकर उसके आधुनिक कला की, इधर अंतरारष्ट्रीय पूछ-परख बढ़ी है। लेकिन अपने को एक बड़ी सांस्कृतिक शक्ति के रूप में प्रक्षेपित करने का हमारा प्रयत्न खासा शिथिल है..जो कुछ होता है उसका ज्यादातर निजी पहल पर प्रायनवेट गैलरियों आदि के द्वारा ही। संसार को दिखाने, बल्कि अचंभे में डालने के लिेए हमारी कला-संपदा विपुल है। होना तो यह चाहिए कि मारे पास विभिन्न युगों, थीमों आदि को लेकर चालीस-पचास प्रदर्शनियों की एक टोकनी हो, जसके आधार पर हम अपा सशक्त प्रक्षेपण आयोजित कर सकें। राष्ट्रीय संग्रहालय,इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केंद्र , हस्त शिल्प संग्रहालय, राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय,ललित कला अकादेमी, इलाहाबाद संग्रहालय, छत्रपति शिवाजी वस्तु संग्रहालय, सालारजंग संग्रहालय, कैलिको टैक्सटाइल संग्रहालय, संस्कृति प्रतिष्ठान, इंडियन म्यूजियम आदि को मिल-बैठकर एक बड़ी योजना बनानी चाहिए और फिर उन्हें लेकर भारत को, चीन की तरह कला जगत में दिग्विजय के लिए निकलना चाहिए। अभी कुछ करेंगे तो परिणाम निकलने में तीन-चार बरस लगेंगे। आख़िर संसार के बड़े संग्रहालयों और कला वीथिकाओं की अपनी पहले की प्रति-श्रुतियाँ होंगी। भारत के धनाढ्यतर कॉरपोरेट-जगत को इस प्रयत्न में वित्तीय मदद के लिए आगे आना चाहिए और भारत सरकार को चाहिए कि ऐसी मदद को कर की रियायतें दे।

अथक जीवट की ललकार

वे पचहत्तर से भी अधिक बरस गाती रहीं। यह कहने का मन होता है कि वे एक तरह से बीसवीं सदी के बड़े हिस्से पर छाई रहीं,अपनी वज़नदार आवाज़ से। वे बूढ़ी होती गईं, जैसा कि समय का अनिवार्य प्रतिफलन होता है,पर लगा नहीं कि उन्होंने कभी हार मानी। वे कई बार बीमार पड़ीं, पर ऐसा नहीं लगा कि वे थक रही हैं। जब तक वे गाती रहीं (और वे नब्बे बरस की आयु के पार भी गाती रहीं) तब तक उनकी आवाज़ अथक जीवट की ललकार बनी रही। उनकी आवाज़ में लगभग भौतिक वज़न जैसा महसूस होता था। वे बहुत सौम्य स्वभाव की थीं-निपट घरेलू, बिना किसी नाज़-नखरे के और आयोजकों से झगड़े बिना देश भर की यात्रा करती रहीं। उनकी आवाज़ एक स्त्री की आवाज़ थी, जो लगभग जीवन भर काल से लड़ती रही,उसे ललकारती रही,उसके पार न सिर्फ स्वयं जाती रही,बल्कि अपने से प्रतिकृतों को भी ले जाती रही। वह एक ऐसी स्त्री की आवाज़ थी जो कालातीत होकर अपना समय और स्पेस स्वयं रचती और फिर संगीत की अनिवार्य ट्रैजिक परिणिति की तरह उसे स्वयं नष्ट एवं ओझल भी कर देती है। यह आवाज़ किराने घराने में सुदीक्षित थी। पर जब हम उन्हें सुनते थे तो उस घराने की सारी सीमाओं और मर्यादाओं का अतिक्रमण करते हुए वह उनकी अद्वितीय गायकी लगती थी, उनका संगीत एक घराने की परंपरा में होते हुए भी, जिसका कि वे बेहद आदर करती थीं,उनका अपना था। उस पर उनका अपना रंग था, उनकी अमिट छाप थी। वे कुछ और नहीं हो सकती थीं, वे गंगूबाई हंगल थीं। अगर बताया न जाता कि यह एक मूर्धन्य संगीतकार का निहायत साधारण नाम है या कि वह निहायत घरेलू स्त्री,जिसके रूप-रंग और पहरावे मे कुछ भी नाटकीय नहीं था, एक बड़ी शास्त्रीय संगीतकार हैं तो किसी को उनके ऐसा होने का संदेह भी नहीं हो सकता था। अपनी संगीत सभाओं में अधिक से अधिक रेशमी, दक्षिणात्य साड़ी भर ऐसी रियायत थी, जो अपनी निपट निम्न-मध्यवर्गीयता के वे देती थीं। पर उनकी ऊपरी धजा इस अर्थ में भ्रामक थी कि वे अपने संगीत से अपने समय, स्थिति और उनकी सभी सीमाओं से ऊपर उठ जाती थीं। उनके संगीत में सिर्फ स्वर का नहीं, आत्मा का उन्नयन होता था। सारा कलुष, इस खूंखार समय में होने का हताश क्लेश, अपनी निरूपायता का सारा अवसाद इस संगीत के साथ तैरने पर झर जाते थे। गंगूबाई का संगीत अतिक्रमण और उन्नयन का संगीत था। वे इस कदर विनयशील थीं कि अगर उनसे कोई यह कहता तो वे मानने से इनकार कर देतीं।

गंगूबाई न सिर्फ एक विराट स्पेस रचती थीं, वे उसमें तैरती-सी थीं। उनका संगीत उत्ताल था-वह समय को छूकर समयातीत के नज़दीक चला जाता था। उसकी परिधि में बचा रहता था सिर्फ उज्ज्वल उदात्त, विनय और साहस, परंपरा से ही संसार के रहस्य को छू पाने का जतन। संगीत-संसार में पुरुषों के वर्चस्व के लिए गंगूबाई हमेशा एक वज़नदार चुनौती बनी रहीं। उनकी घन-गंभीर आवाज़ में इतना लालित्य संभव था, वह इतना कोमल, पर सशक्त वैभव रच सकती थी, उसका वितान इतना विस्तृत, पर संयमित हो सकता है, यह हममें से बहुतों के लिए कृतज्ञ और अभिभूत विस्मय का विषय रहा , रहेगा। उनके न रहने पर हममें से कई अपना भाग सराहेंगे कि हमने गंगूबाई को देखा-सुना था, आने वाली पीढ़ियाँ हमसे इस बारे में रश्क करें, न करें। न करें तो उनका भाग |
पिछले लगभग दो महीने समकालीन कलाजगत के लिेए बेहद दुखद रहे हैं। इतनी कम अवधि में हमारे पाँच मूर्धन्य दिवंगत हुए-रंगकर्मी हबीब तनवीर,चित्रकार तैयब मेहता, संगीतकार उस्ताद अली अकबर ख़ाँ, श्रीमती डीके पट्टमाल और अब श्रीमती गंगूबाई हंगल। याद नहीं आता कि इतनी कम अवधि में इतने दुखद देहावसान कलाजगत की विभूतियों के पहले हुए हों।





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