हिन्दी धारावाहिकों में फेमिनिज्म का ढोंग


'बालिकावधू' (कलर्स) मेल फेमिनिज्म का कथानक है और 'अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजो' मेल शोवेनिज्म का कथानक है। पुंसवादी स्त्रीवाद और स्त्रीवादी पुंसवाद को इन दो सीरियलों के जरिए देखा जा सकता है। रूपा गांगुली (अगले जनम, जी टी वी) का चरित्र घर का मुखिया जो उसका पति भी है की आज्ञा को वर्चस्व के दायरे में नीचे आनेवाले परिवार के सदस्यों से मनवाने की है।

स्त्री सुचिंतित ढंग से मेल फेमिनिज्म में बदली जा रही है। हमारे यहाँ योरोपीय कथानकों की तरह 'वारियर' स्त्रियाँ नहीं हैं। घरों के भीतर ये दादी , सास, जिठानियाँ हैं जो 'वारियर वूमैन' में कनवर्ट की जा रही हैं। ये घर के भीतर पुंस वर्चस्व के लिए लड़नेवाली योध्दा स्त्रियाँ हैं। ये युध्द कर रही हैं। ये किससे युध्द कर रही हैं ? व्यवस्था के खिलाफ जानेवाले रवैय्ये से युध्द कर रही हैं। जो अपने मातहत पर हर तरह के जुल्म करने से पीछे नहीं हटतीं। निश्चित रूप से सुरेखा सीकरी ( बालिकावधू , स्टार प्लस) का अभिनय दादी सा की भूमिका में लाजवाब है। पुंसवादी स्त्रीवाद को इस अभिनेत्री से बेहतर शायद ही कोई निभा सकता है। इसी तरह 'अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजो' (जी टी वी) में ललिया की भूमिका करने वाली अभिनेत्री ने बेजोड़ अभिनय किया है। उसका चरित्र स्वतंत्रता पसंद करनेवाला चरित्र है। अस्वीकार के भाव से भरा चरित्र है। उसके संवाद, अभिनय सबमें अस्वीकार का भाव है। ये दो खास चरित्र हैं। 'बालिकावधू' में कोई भी चरित्र यहाँ तक कि छोटी बच्ची आनंदी दादी के सामने बोलने या जिद करने का साहस नहीं करती। सबकी फूँक दादी के समने निकल जाती है। सारे के सारे चरित्र सबमिसीव बनाए गए हैं।

ये दो चैनल हैं दोनों में दृष्टिकोण अलग अलग है। एक भारतीय चैनल है (अगले जनम,जी टी वी, सुभाष चंद्रा) और दूसरा विदेशी चैनल है (बालिकावधू,कलर्स)। एक में स्त्री का विद्रोही तेवर कहानी की जान है। दूसरे में औरत के सबमिसीव भाव को महिमामंडित किया गयाहै। ललिया (अगले जनम, ज़ी टी वी) अपने को गरीबी अमीरी, स्त्री पुरूष , जाति आदि से परे इंसान समझे जाने के लिए लड़ाई लड़ती है। लड़कों के लिए आयोजित दौड़ में हिस्सा लेती है। दौड़ जीतने में उसका लड़की होना , कुपोषित स्वास्थ्य, और उसे जीतते देखकर उसके शरीर को निशाना बनाने वाले दौड़ में शामिल साथ के लड़कों के हमले के बावजूद वह जीतती है। लड़की होने को बाधा नहीं बनने देती। बार बार पुंसवादी व्यवस्था से संघर्ष करती है। इन्सान के स्तर पर अपना हक मांगना एक अशिक्षित लड़की का पुंसवादी मानसिकतावाले समाज के मुँह पर पुरजोर तमाचा है। जानवरों के साथ जानवरों की तरह गोशाला में बाँधे जाने पर वह बाँधनेवाले जमींदार के लोगों से कहती है | 

''हम भी तुमरे तरह इन्सान ही हैं भइया। हमरी का गलती है। हमरे साथ धोखा हुआ। हमरी यही गलती है का। इसी बात की सजा मिल रही है का हमको। छोड़िए न हमको।'' ( 'अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजो', जी टी वी, 22 जून सोमवार रात साढ़े नौ बजे) जमींदार के यहाँ काम करनेवाली गौशाला की रखवारिन सुष्मिता मुखर्जी का चरित्र पूरी तरह से पुंसवादी वर्चस्व के प्रभाव में है।उससे ललिया सवाल करती है- '' काहे हमको जानवर की तरह सजा दिया जा रहा है ?''

'' इन्सान भी तो एक तरह का जनावर होता है। इन्सान और जनावर में का फर्क है तुझे अच्छी तरह से पता लग जाएगा।''

'' नजरें नीची कर। सत्यानाश। कैद में तू हमरे। ऐसे घूरेगी न तो निकाल लूँगी दोनों बत्ती। ''

'' तो देख का रही हैं। निकाल लीजिए न। कितना भी बांध लीजिए। इस बार रोक नहीं पाइएगा। सोच लीजिए ठाकुर साहब से क्या कहिएगा। इ बार गए न त लौउट के नहीं आएंगे। ''
जानवरों जैसा सलूक किए जाने पर भी वह अपने इंसान होने को भूलती नहीं है। पिता ने उसे पैसों के लिए बेच दिया खरीददीर ने अपनी जरूरत के लिए उसे खरीदा। पर उसका जुझारूपन ही उसका सहारा है। उसके चरित्र में बहुत संभावनाएँ हैं। ये कहानी लेखक पर निर्भर करता है कि वह उसे कौन सा आयाम देता है। मूक जानवरों से बात करते हुए वह अपने इरादे की घोषणा करती है- '' कैसे सहे जी तू लोग सब कुछ ! तू लोग बोल नहीं पाती हो न !तू लोग के लिए अच्छा है। न तो एतना कुछ हो जाने के बाद चुप रहने का का मतलब ? हम भी तुम लोगों की तरह बंद हैं। लेकिन तू लोग इ बेड़ी को अपना नसीब मान ली हो। तू लोग का गलती है ये। हम इ सब को अपना नसीब नहीं बनने देंगे। इ बेड़ी को तोड़ के रहेंगे।'' (वही)

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