सिद्धू की झप्पी पर शर्मिंदा नहीं, खुश होना चाहिए


नस्लवादी राष्ट्रवादियों ने कुछ ऐसा माहौल बना दिया है कि कोई अच्छा काम भी करे तो उसे देश विरोधी हरकत के रूप में प्रचारित किया जाने लगता है। इस प्रचार से अच्छा काम करने वाले बचाव की मुद्रा में आ जाते हैं। वे शर्मिंदगी महसूस करने लगते हैं, माफ़ियाँ तक माँगने पर उतारू हो जाते हैं।
siddhu kee jhappee par sharminda nahin, khush hona chaahie

अति राष्ट्रवादियों की ये रणनीति होती है कि आक्रामक शैली अपनाओ और अपने विरोधियों को हमेशा ऐसी स्थिति में रखो कि वे हावी न होने पाएं। वे नफ़रत और हिंसा की भाषा में बात करते हैं, जिससे उदारवादी बगलें झांकने लगते हैं क्योंकि उन्हें उनकी शैली में बात करने का प्रशिक्षण नहीं मिला होता।

अगर अंध राष्ट्रवादियों के पास सत्ता की ताक़त और मीडिया भी हो, तो फिर कहना ही क्या। तब तो वे खुद को अपराजेय मान लेते हैं और विपक्षियों को पूरी तरह कुचल देने पर आमादा हो जाते हैं। ऐसे में वे हिंसा का सहारा लेने से भी बाज नहीं आते।

पूर्व क्रिकेट खिलाड़ी, काँग्रेस के नेता और पंजाब के मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू द्वारा पाकिस्तान के सेना प्रमुख क़मर जावेद बाजवा को गले लगाने के बाद भी कुछ ऐसा ही हो रहा है। नस्लवादी-राष्ट्रवादी इस घटना को देश विरोधी कहकर सिद्धू और काँग्रेस पर हमला करने पर उतर आए हैं और काँग्रेस को लग रहा है जैसे वह बहुत बड़ी मुसीबत में फँस गई है।




ये वह भली भाँति समझती है कि सिद्धू ने कोई ग़लत काम नहीं किया है। मगर उसे राजनीतिक नफ़े-नुकसान की चिंता सता रही है और ऐसा इसलिए है कि अंधराष्ट्रवादियों ने पाकिस्तान को अछूत बना दिया है, जिसका मतलब है कि जिसने उसे छुआ वह जाँत बाहर।

काँग्रेस को पता है कि देश की जनता को पाकिस्तान विरोध की ऐसी उन्मादी घुट्टी पिला दी गई है कि वह सही-ग़लत का फ़ैसला करने की स्थिति में नहीं रह गई है। ज़ाहिर है कि ऐसे में राजनीतिक नुकसान हो सकता है, ख़ास तौर पर चुनावी साल में  और वह ये जोखिम उठाने के लिए तैयार नहीं है।

अफ़सोस की बात ये है कि ग़ैर काँग्रेसी उदारवादी भी दबाव में हैं और सिद्धू तथा काँग्रेस को कोसने में लग गए हैं, जबकि होना इसका उल्टा चाहिए। भारत-पाकिस्तान के बीच रिश्तों में सुधार के लिए कहीं से भी कोई क़दम उठता है, उसका स्वागत किया जाना चाहिए, न कि डरकर उसे धिक्कारने में जुट जाना चाहिए।

दरअसल, अनावश्यक डर ने काँग्रेस और ऐसे तमाम लोगों की बुद्धि हर ली है जो अंधराष्ट्रवादी ताक़तों को एक बड़े ख़तरे के रूप में देखते हैं और उसे कोई मौक़ा नहीं देना चाहते। अगर ऐसा न होता तो वे दूष्प्रचार को तर्कों से काटने की कोशिश करते, बिलों में दुबकने की कोशिश न करते।

उन्हें उलटकर पूछना चाहिए कि जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लपककर नवाज़ शरीफ़ का बर्थडे मनाने पाकिस्तान पहुँच जाते हैं तब ये सवाल क्यों नहीं पूछे जाते? वे नवाज़ शरीफ़ को अपने शपथ ग्रहण समारोह में बुलाएं, उनके घर जाएं, तोहफ़े बाँटें. उनसे फोन पर बातें करें, तब कुछ नहीं, मगर एक नेता यदि वहाँ के प्रधानमंत्री के बुलावे पर जाता है और वहाँ का जनरल उन्हें गले लगा लेता है तो क़यामत क्यों आ जाती है?

अंध राष्ट्रवादियों की आदत होती है। वे बात-बात पर सेना और शहीदों को ले आते हैं जैसा कि सिद्धू वाले मामले में भी कर रहे हैं। लेकिन ये बात वे तब भूल जाते हैं जब उनका कोई नेता पाकिस्तान जाता है और पाकिस्तान के साथ दोस्ती की बात करता है। जब वाजपेयी गए थे तब भी उन्हें सेना और शहीद याद नहीं थे और मोदी की यात्रा के समय भी उनकी यादाश्त को लकवा मार गया था।

वे ये भी नहीं देखते कि दोनों के बीच बात क्या हुई। जनरल बाजवा ने कहा कि उनका मुल्क गुरूद्ववारा करतार साहेब के लिए गलियारा खोल रहा है। माना जाता है कि गुरु नानक का जहाँ अंतिम समय यहीं बीता था और ज़ाहिर है कि लिए उनके अनुयायियों के लिए इसका ख़ास महत्व है।

लेकिन वे इसे नज़रअंदाज़ कर रहे हैं, क्योंकि इससे उनका अंधराष्ट्रवादी अभियान कमज़ोर होता है। सोचिए अगर यही काम मोदी या उनकी सरकार के किसी नुमाइंदे ने किया होता तो कितनी वाहवाही हो रही होती। कहा जाता कि सरकार की नीति की वजह से पाकिस्तानी जनरल तक डर गया है और अब इकतरफा घोषणाएं करने को मजबूर हो गया है।




ये अंधराष्ट्रवादी तो सिद्धू के पाकिस्तान जाने से ही ख़फ़ा हैं। सोचिए अगर इमरान ख़ान ने मोदी को आमंत्रित किया होता तो क्या वह नहीं जाते? ज़रूर जाते, आखिर उनके बुलाने पर जब पाकिस्तान के वज़ीर ए आज़म जब आए थे तो वे कैसे इंकार कर सकते थे। और अगर वे गए होते तो अंध राष्ट्रवादी और उनके साथ खड़ा मीडिया जय जयकार कर रहा होता।

अब इस तर्क में कोई दम नहीं है कि सुनील गावस्कर और कपिल देव नहीं गए। दोनों राजनीति में नहीं हैं और वे सिद्धू जैसे बिंदास भी नहीं हैं। बल्कि ये कहा जाए कि डरपोक और अवसरवादी भी हैं तो ज़्यादा ठीक होगा। उन्होंने देखा होगा कि अंधराष्ट्रवादियों को खुश रखने में ही फ़ायदा है इसलिए नहीं गए। हालाँकि गावस्कर ने इमरान से अपने करीबी रिश्तों को ज़ाहिर करने के लिए एक संस्मरण ज़रूर लिख मारा।

सिद्धू की झप्पी पर शर्मिंदा नहीं, खुश होना चाहिए
Share on Google Plus

0 comments:

Post a Comment