जब सरकार मुक़ाबिल हो...


तमाम सरकारें अपने विरोधियों की बाहें मरोड़ती हैं, उन्हें धमकाती हैं, खरीदने की कोशिश करती हैं और जब इस सब से भी काम नहीं चलता तो उन्हें ख़त्म करने की हद तक चली जाती हैं। लेकिन ऐसा करते समय भी वे लोकलाज की थोड़ी-बहुत परवाह करती हैं। उन्हें ये भय तो रहता ही है कि कहीं लोकतंत्र विरोधी न समझ लिया जाए, उन पर तानाशाह होने का आरोप न लग जाए। अलोकतांत्रिक कर्म करते हुए भी वे खुद को लोकतांत्रिक दिखाने का भरपूर प्रयास करती हैं। वे ये काम दबे-छिपे ढंग से करती हैं। ख़ास तौर पर जब मीडिया का मामला हो तो और भी, क्योंकि उसके उँगली उठाते ही लोगों के दिमाग़ में आपातकाल की यादें ताज़ा होने लगती हैं और लोग उसके खिलाफ़ मोर्चा खोल देते हैं।

Mukhabil government
लेकिन वर्तमान सरकार या तो देशवासियों को मूर्ख समझती है या फिर वह खुद मूर्ख है। ये भी मुमकिन है कि वह विद्वेष एवं बदले की भावना से भरी हो और उसे लोकलाज की चिंता ही नहीं हो, अन्यथा एनडीटीवी इंडिया पर इस तरह से निर्लज्जता के साथ सरे आम हमला न करती। पहले से तय लक्ष्मण रेखाओं का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन न करती। वास्तव में अपनी ही बनाई अंतर मंत्रिमंडलीय समिति की सिफारिश पर एक ऐसे चैनल पर प्रतिबंध लगाना जो सबसे अधिक संतुलित रहता है और जिसकी सामग्री किसी भी चैनल के मुक़ाबले बेहतर रहती है, उसकी बदनीयती को ही जगज़ाहिर करती है।

बदनीयती इसलिए भी ज़ाहिर होती है कि सरकार और उसके समर्थकों का एनडीटीवी विरोधी अभियान पहले से ही सबको पता है। उन्होंने इस चैनल समूह और इसमें काम करने वाले पत्रकारों के खिलाफ़ ज़हरीली मुहिम छेड़ रखी है। वे उन्हें सोशल मीडिया पर और जहाँ कहीं भी संभव होता है उन्हें बदनाम करने में लगे रहते हैं। रवीश कुमार, बरखा दत्त उन्हें फूटी आँखें नहीं सुहाते और अगर उनका वश चले तो वे उन्हें ज़िंदा न छोड़ें। एनडीटीवी को बंद करवाने या उसे अपने ही किसी उद्योगपति के हाथों खरीदवाने की कोशिशों का भी परदाफाश हो चुका है। उसे फर्ज़ी मुक़द्दमों में फँसाने-उलझाने तथा बदनाम करने के हथकंडों की जानकारी भी सार्वजनिक हो चुकी है।

इस पृष्ठभूमि के साथ जब हम एनडीटीवी पर हमले को देखते हैं तो सरकार का दुराग्रह तो दिख ही जाता है, मगर इसे साबित करने के और भी परिस्थितिजन्य साक्ष्य मौजूद हैं। वास्तव में जिस आधार पर एनडीटीवी पर चौबीस घंटे का प्रतिबंध लगाया गया उसी की कोई बुनियाद ही नहीं थी। पठानकोट का कवरेज सभी बड़े चैनलों का लगभग एक जैसा था। घटनास्थल पर कम से कम पचास चैनलों की टीम मौजूद थीं और किसी के लिए भी एक सीमा से आगे जाने की गुंज़ाइश नहीं थी इसलिए एनडीटीवी ही क्यों कोई भी चैनल गोपनीय जानकारियाँ देने की स्थिति में नहीं था। अलबत्ता जो चैनल सनसनीखेज़ पत्रकारिता करते हैं वे ये खेल ज़रूर खेल सकते थे और उन्होंने ये किया भी। एऩडीटीवी तो इस तरह की पत्रकारिता से परहेज करता रहा है और उसके पिछड़ने की ये एक बड़ी वजह भी रही है। इसलिए उसके बारे में इस तरह के आरोप किसी को हज़म ही नहीं हो सकते।


एडिटर्स गिल्ड के इस बयान में आंशिक सचाई है कि सरकार का ये क़दम आपातकाल की याद दिलाता है। पूरा सच ये है कि अघोषित आपातकाल लागू है और हर असहमत आवाज़ को दबाने का अभियान जोरों पर है। चाहे वह मीडिया में हो, फिल्मों में हो या फिर साहित्य में, हर जगह सरकार और उसके समर्थकों का खुल्लमखुल्ला दमन चक्र चल रहा है। मौजूदा हालात अमेरिका के मैकार्थीवाद के दौर से मिलता-जुलता है। सन् 1950-56 के बीच में अमेरिका की तत्कालीन हुकूमत ने असहमति को दबाने के लिए विरोधियों को कम्युनिस्ट या देशद्रोही करार देकर उन्हें जेल में ठूँसने या मार डालने का अभियान चलाया था। उस स्याह दौर में हज़ारों लोगों को इस तरह से प्रताड़ित किया गया था, जिनमें, पत्रकार, शिक्षाविद्, संस्कृतिकर्मी, मज़दूर नेता, सरकारी कर्मचारी शामिल थे।

आज यही कुछ तो हो रहा है देश में। जेएनयू हो या लेखक-पत्रकार वर्ग, सबको वामपंथी या सरकार विरोधी घोषित करके निशाना बनाया जा रहा है, उन पर झूठे आरोप लगाए जा रहे हैं, उन्हें बदनाम किया जा रहा है, जेल में ठूँसा जा रहा है। ये सब इतना ख़तरनाक़ है कि ये पूछना गुनाह है कि क्या बाग़ों में बहार है? अब तोप नहीं सरकार मुक़ाबिल है और अख़बार निकालने वालों को कुचला जा रहा है। ऐसे में मीडियाकर्मियों के लिए आगे का रास्ता सचमुच में कठिन है। सरहद पर जंग लड़ने से भी ज़्यादा कठिन।

जब सरकार मुक़ाबिल हो...

Written by-डॉ. मुकेश कुमार
डॉ. मुकेश कुमार










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