इंटरनेट में लिंगबोध या लिंग जैसी कोई चीज़ नहीं होती। लिंग की पहचान या स्त्री अस्मिता मूलत: प्रेस क्रांति के परिप्रेक्ष्य में निर्मित अवधारणा है। प्रेस क्रांति को ज्यों-ज्यों अपदस्थ करते जाएँगे लिंगरहित अवस्था से जुड़ी समस्याओं में गुजरते जाएँगे। सवाल उठता है इंटरनेट युग या ऑनलाइन युग में अस्मिता कैसे निर्मित होती है ?
हमारा आज भी अधिकांश समाज ग़ैर-इंटरनेट अवस्था में जी रहा है, वहाँ ठीक से प्रेसक्रांति भी नहीं पहुँची है। ऐसे में हमारे समाज में एक औरत में कई औरतों की इमेज और भाव-भंगिमाएँ सहज रूप में देखी जा सकती हैं।
मसलन्, जो लड़की इंटरनेट यूज़र है वह अतीत के स्त्री-मूल्यों से बुरी तरह बंधी है, जो पश्चिमी मूल्यों की क़ायल है वह दिमाग़ से दहेज और संपत्ति के मोह में डूबी हुई है, तमाम क़िस्म के सामाजिक परवर्जन में डूबी है। जो लड़की सूचना तकनीक का जमकर उपयोग कर रही हैं उनमें से अधिकांश की सामयिक राजनीति और समकालीन समस्याओं में कोई दिलचस्पी नहीं है।
इसी तरह नए बदले माहौल ने एक बड़ा परिवर्तन यह किया है कि उसने शिक्षित-अशिक्षित सभी क़िस्म की महिलाओं को मोबाइल से जोड़ दिया है। कम्युनिकेशन के लिहाज़ से यह लंबी छलाँग है। मोबाइल कम्युनिकेशन ने स्त्री-भेद और उम्र-भेद को एक ही झटके में ख़त्म कर दिया है। इसके कारण स्त्री के निजी और सार्वजनिक रूपों , बातों और संस्कारों में मूलगामी परिवर्तन हुआ है।
पहले स्त्री की कायिक मौजूदगी केन्द्र में थी लेकिन इंटरनेट-मोबाइल-एसएमएस ने स्त्री की भाषिक मौजूदगी को प्रमुख बना दिया है। अब स्त्री-भाषा में मिलती है। पहले स्त्री के शरीर पर बहुत बातें हुई हैं। समूचा श्रृंगार रस स्त्री शरीर के ऊपर केन्द्रित है। लेकिन स्त्री की कायिक सत्ता का रीतिकाल के समापन के साथ पूँजीवाद ने नवीकरण किया है। पहले साहित्य में श्रृंगाररस था, जीवन में नहीं था। पूँजीवाद ने श्रृंगार को वायवीय बियावान से निकालकर भौतिक बनाया है ।
रैनेसां में स्त्री शरीर के सवाल केन्द्र में आते हैं। मध्यकाल में कविता में औरत का शरीर है जबकि रैनेसां में गद्य में औरत के शरीर को रखा गया। कम्युनिकेशन और व्यापार के केन्द्र में स्त्री शरीर को रखा। यानी आधुनिक-काल आते ही औरत को घर की चहारदीवारी से बाहर निकाला गया। पहले की तुलना में औरत ने व्यापक सामाजिक स्थान बनाया। उसका बहुआयामी शोषण हुआ।
नए श्रम विभाजन में औरत ने अपनी जगह बनायी। नए कम्युनिकेशन, नए सामाजिक बदलाव में औरत ने सक्रिय भूमिका निभायी। ख़ासकर राजनीति और राजनीतिक अर्थशास्त्र के निर्माण महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। दिलचस्प बात यह है श्रृंगार औरत करती थी लेकिन तय व्यवस्था ने किया। किसी महिला ने श्रृंगार रस पर नहीं लिखा। पुरूषों ने लिखा। इसी तरह सेक्स और उसका संबंध कैसा हो यह भी पुरूषों ने लिखा। कामसूत्र और श्रृंगार रस पर लिखा समूचाशास्त्र पुरूषों ने रचा।
पुरूष माने व्यवस्था, यह धारणा कई हज़ार सालों में निर्मित हुई है। अब यह आदत बन गयी है। औरतों ने इन विषयों पर क्यों नहीं लिखा यह रहस्य बना हुआ है, जबकि उस ज़माने में औरतें जमकर लिख रही थीं। इसी तरह रैनेसां में स्त्री के सवाल केन्द्र में हैं लेकिन औरतें चुप हैं। औरतों की इस चुप्पी को जितना खोला जाएगा भिन्न क़िस्म के सवाल जन्म लेंगे।
मध्यकाल और रैनेसां में स्त्री को बाँधने, नियमित और नियंत्रित करने के शास्त्र रचे गए। यह काम इकतरफ़ा और स्टीरियोटाइप ढंग से हुआ। फलत: स्त्री के तन, मन और अनुभूति को समाज सीमित रूप में ही जान पाया। औरत को इस क्रम में वैविध्यपूर्ण और मानवीय बनाने की बजाय वायवीय-मिथकीय- रहस्यात्मक बना दिया।
सच यह है कि मध्यकाल में पुरूष औरत को बहुत कम जानता था। लेकिन आधुनिककाल में स्त्री के शरीर की बजाय उसके सामाजिक अस्तित्व के सवाल जब उठे तो स्त्री शरीर और पुरूष के नज़रिए से मुक्ति का मार्ग निकला। स्त्री के बारे में , उसके मन, तन और सामाजिक कार्य-व्यापार के बारे में सामाजिक सचेतनता बढी।
कहने का आशय यह है कि तन के परे स्त्री के सामाजिक अस्तित्व के सवाल समाज और मीडिया में जितना स्थान घेरेंगे उतना ही स्त्री ताक़तवर बनेगी। स्त्री देह के सवाल पुरुष वर्चस्व को बनाए रखते हैं, जबकि स्त्री के सामाजिक अस्तित्व के सवालों पर संवाद और विमर्श से महिला सशक्तिकरण में इज़ाफ़ा होता है।
विगत चार दशकों के दौरान स्त्री अस्मिता की राजनीति साहित्य-विमर्श के केन्द्र में है। क़ायदे से स्त्री अस्मिता को स्थिर अवधारणा के रूप में देखने से बचना चाहिए। हिन्दी में अधिकांश लेखन स्त्री अस्मिता के स्थिर रूप से जुड़ा है। जबकि स्त्री अस्मिता को रूपान्तरित अवधारणा के रूप में देखना चाहिए। मसलन् एक स्त्री की अस्मिता सिर्फ़ स्त्री के विभिन्न रूपों में ही रूपान्तरित नहीं होती बल्कि अनेक बार वह लिंगातिक्रमण भी कर जाती है।
स्त्री अस्मिता या अस्मिता के स्थिर रूप के ज़रिए समलैंगिक या लेस्बियन अस्मिता को समझ ही नहीं सकते। इसी तरह मायावती-ममता-जयललिता आदि स्त्रियाँ जब राजनीति करती हैं तो वे मात्र स्त्री नहीं रह जातीं बल्कि उनकी राजनेता की अस्मिता बन जाती है। यह वस्तुत: स्त्री अस्मिता का रूपान्तरित रूप है जो बेहद महत्वपूर्ण है।
इसी तरह स्त्री और उच्च तकनीक के अन्तस्संबंधों से जिस अस्मिता का निर्माण होता है वह स्त्री अस्मिता से भिन्न है। डोना हर्वे के अनुसार उच्च तकनीक के पैराडाइम में स्त्री या पुरूष का लिंगभेद ग़ायब हो जाता है, ऊँच-नीच, छोटे-बडे का भेद ग़ायब हो जाता है। यहाँ पर तो ज्ञान और राजनीति के परिप्रेक्ष्य में पहचान बनती है। हम डोना के नज़रिए से असहमत हैं, अंत: वे सही हैं,यह स्थिति नेट के प्रसंग में कम है, लेकिन कम्प्यूटर के संदर्भ में ज़्यादा है।
नेट पर बडे पैमाने पर स्त्री-विरोधी सामग्री है, बेवसाइट हैं। अभी तक सोशल मीडिया से लेकर बेवसाइट तक स्त्री के लिए सुरक्षित स्थान नहीं है। वर्चुअल स्त्री के लिए समाज की ज़रूरत नहीं है लेकिन वास्तव में औरत की दुनिया को समाज या समुदाय के बिना निर्मित नहीं कर सकते। वर्चुअल स्पेस में औरत नहीं उसकी इमेज मात्र रहती है। यह वास्तविक स्त्री नहीं है।
रेमण्ड विलियम्स ने लिखा है मानवीय सांस्कृतिक गतिविधियों पर विचार करते समय सबसे बड़ी बाधा यह है कि हम तात्कालिक और नियमित अनुभवों को निष्पन्न विचारों के साथ जोड़ देते हैं। इस क्रम में सारवान अतीत की ओर जाते हैं मगर साथ ही सामयिक जीवन की ओर भी जाते हैं। इसमें संबंधो, संस्थानों और उन रूपों की ओर जाते हैं जिनमें सक्रिय हैं और रूपान्तरित कर रहे हैं। इस प्रक्रिया को निर्माण प्रक्रिया न कहकर समग्र कहना समीचीन होगा।
इस नजरिए से देखें तो रोमांस, नौकरी, शादी ,शिक्षा आदि कोई भी चीज जो अस्मिता को बनाती है वह तात्कालिक सामाजिक संरचनाओं और रूपों से निर्मित नहीं होती। मनुष्य सिर्फ तात्कालिक चीजों से ही नहीं बनता, बल्कि उसके निर्माण की प्रक्रिया सामाजिक अभ्यासों पर निर्भर है। सामाजिक अभ्यासों का निर्माण दीर्घकालिक प्रक्रिया में होता है। इसलिए अस्मिता पर विचार करते समय इस पर सोचें कि उसके निर्माण के उपकरण कौन से हैं ॽ
सारी दुनिया में अस्मिता की अवधारणा को जनप्रिय बनाने और स्थापित करने में अमेरिकी समाजविज्ञानी-मनोशास्त्री जी.एच.मीड की बहुत बड़ी भूमिका है। भारत में अस्मिता के जिन उपकरणों का जो लोग इस्तेमाल करते हैं उनमें मीड के नजरिए के उपकरण जाने-अनजाने चले आए हैं। मसलन्, अस्मिता को व्यक्ति की सहजजात क्षमताओं को सामाजिक जीवन, आत्म-चेतना और आत्म-अभिव्यंजनाओं के साथ जोड़कर सामाजिक इतिहास का उत्पाद बनाकर पेश किया गया। इस तरह की वस्तुगत प्रस्तुतियों को संवेदनाओं के साथ जोड़कर पेश किया गया और यही अस्मिता का बुनियादी आधार है।
सामान्य तौर पर अस्मिता की अवधारणा सामाजिक संबंधों और सांस्कृतिक रूपों के साथ निजी जगत की अभिव्यंजना है। मेरे लेख अस्मिता और निजी जीवन की भूमिकाओं के सामाजिक परिणाम है। इसलिए अस्मिता को सामाजिक आचार-व्यवहार और अभ्यासों के जरिए ही समझा जा सकता है।
अस्मिता का एक छोर जिस तरह सामाजिक अभ्यासों से जुड़ा है वहीं दूसरा छोर मनोजगत की संरचनाओं से जुड़ा है। मसलन् व्यक्ति अपनी देखभाल कैसे करता है, उसके प्रेरक कौन हैं, उसके इर्द-गिर्द जो घट रहा है, उसके प्रति उसका किस तरह का रूख है,वह करीबी यथार्थ की कितनी देखभाल करता है? इन सबसे मिलकर ही मानवीय गतिविधियों का निर्माण होता है।
मसलन्, निज के संदर्भ में अस्मिता नजर आती है,उसके हक नजर आते हैं ,जबकि अन्य के प्रति हम बेगाने बने रहते हैं तो इसे अस्मिता की अनुभूति नहीं कहेंगे। अस्मिता बनती है निजी और सामाजिक सरोकारों के साथ जुड़ने से। इसमें निजी जितना महत्वपूर्ण है,सामाजिक भी उतना ही महत्वपूर्ण है। हमें निजी तौर पर प्रभुत्व जितना पीड़ित करता है, सामाजिक तौर पर भी वह उतना ही पीड़ादायक होता है। इसलिए प्रभुत्व के सवाल निजी और सामाजिक दोनों ही धरातल पर हर क्षेत्र में महत्वपूर्ण हैं।अस्मिता सिर्फ निज की मुक्ति का प्रकल्प नहीं है बल्कि सामाजिक मुक्ति का प्रकल्प भी है।
अस्मिता बनाम प्रभुत्व का अन्तर्विरोध एकायामी नहीं है बल्कि बहुआयामी है। अमूमन हिन्दी में अस्मिता एकायामी दिशा में गतिशील है इसलिए सामाजिक स्तर पर प्रभावहीन है।अस्मिता के सवाल सुविधा,आरक्षण आदि के ही सवाल नहीं हैं बल्कि अस्मिता के सवाल दीर्घकालिक अभ्यासों और सांस्थानिक रूपों को चुनौती देने के सवाल भी हैं।
सन् 1977 के बाद से अस्मिता विमर्श पर जितना लिखा गया है उतना किसी अन्य विषय पर नहीं लिखा गया है। यह स्थिति भारत की ही नहीं सारी दुनिया की है। भारत के संदर्भ में आपातकाल मूल रूप से पैराडाइम बदलता है। आपातकाल के बाद लोकतंत्र की रक्षा का सवाल सबसे बड़ा सवाल बन गया, लोकतंत्र हमारे देश की अस्मिता के पहचान का सबसे बड़ा रूप है, बाकी सारी अस्मिताएं इसके अधीन हैं या मातहत हैं।
अस्मिता के सवाल लोकतंत्र के परिप्रेक्ष्य में उठाए जाने चाहिए। आपातकाल के बाद सबसे बड़ा परिवर्तन यही आया कि उसने पहले से चले आ रहे बहस के मुद्दों को सामाजिक क्षितिज से ठेलकर हाशिए पर डाल दिया और उन मुद्दों को केन्द्र में लाकर खड़ा कर दिया जो लोकतंत्र से सीधे जुड़े हुए थे।
लोकतंत्र बचेगा तो देश बचेगा, तमाम किस्म की अस्मिताएं भी बचेंगी। यही वह मूल प्रस्थान बिंदु है जिसके कारण विभिन्न क्षेत्रों में अस्मिता के सवाल उठे और उन पर व्यापक तौर पर लिखा गया। हिन्दी में दलित और स्त्री के संदर्भ में अस्मिता के सवाल ज्यादा उठे।
अस्मिता का कोई न मित्र है न शत्रु। अस्मिता की सारी आपत्तियां 'अन्याय' के खिलाफ हैं। 'अन्याय' के खिलाफ सामाजिक लामबंदी का उपकरण है अस्मिता। सवाल यह है अंत में अस्मिता किस बिंदु पर पहुँचती है? क्या पुन: लौटकर अस्मिता की ओर लौटते हैं अथवा मानवता की ओर पहुँचते हैं।
अस्मिता मूलत: राजनीतिक मंशा की देन है। अस्मिता पर राजनीति के बिना चर्चा संभव नहीं है। अस्मिता में निहित व्यक्तिगत और सामाजिक इच्छाओं को अभिव्यक्त किया है।अस्मिता विमर्श का इतिहास से गहरा संबंध है। इतिहास में जाए बिना इसका चित्रण और विवेचन संभव नहीं है।
अस्मिता विकल्प है। वह कभी स्वाभाविक नहीं होती। वह सामाजिक निर्मिति है। अस्मिता की धुरी है मनुष्य और मानवता। वह प्रतिस्पर्धी और बहुरूपी है। उसका दूसरा तत्व है भावुकता और सामाजिक तनाव। तीसरा , आत्महीनता। चौथा ,अस्मिता का सम-सामयिक फ्रेमवर्क। पांचवां , अस्मिता की राजनीति। अस्मिता विमर्श का सत्ता विमर्श के साथ गहरा संबंध है । छठा, अस्मिता विमर्श व्यक्तिवादी विमर्श है।
अस्मिता विमर्श का इन दिनों जो रूप देखने में आ रहा है उसके दो प्रमुख आयाम है पहला है 'अन्याय' और दूसरा है 'इच्छापूर्त्ति'। सामाजिक-सांस्कृतिक रूपों में इन दो रूपों में अस्मिता का व्यापक उपभोग हो रहा है। अस्मिता विमर्श मूलत: उत्पादक है। सामाजिक शिरकत को बढ़ावा देती है। ध्यान रहे जाति,लिंग,नस्ल,त्वचा,धर्म आदि पर आधारित अस्मिता की सीमित भूमिका होती है। अस्मिता का मूलाधार है मानवता। मनुष्य ही प्रधान अस्मिता है। बाकी इसके मुखौटे हैं।
स्त्री अब काया में नहीं भाषा में मिलती है
Today, women is found in language not in body.
Written By
जगदीश्वर चतुर्वेदी
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