दलितों के उना मार्च ने बीजेपी या गुजरात सरकार को ही नहीं राष्ट्रीय राजनीति को भी झकझोर कर रख दिया है। हज़ारों की तादाद में अहमदाबाद से उना पहुँचकर उन्होंने जता दिया है कि वे अब पीछे हटने वाले नहीं हैं। वे लड़ने के लिए तैयार हैं और उस हिंसा को झेलने के लिए भी जो कथित ऊंची जातियों के गौ-आतंकवादी तथा उनके आका उन्हें चुप कराने के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं।
दरअसल, उना मार्च एक तरह से सामाजिक-आर्थिक उत्पीड़न और शोषण के खिलाफ दलितों का ऐलान-ए-जंग है। वे एकजुट हो गए हैं और उन्होंने सामाजिक समीकरणों को चुनौती देने का हौसला तथा हिम्मत जुटा ली है। इसका वे सामूहिक इज़हार कर रहे हैं। ये मामूली बात नही है। इसे हाल के वर्षों की सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना के रूप में दर्ज़ किया जाना चाहिए।
उना में दलित युवकों पर गौ-आतंकवादियों द्वारा ढाए गए अमानवीय अत्याचार ने दलितों को ये संदेश साफ़-साफ़ दे दिया था कि अगर वे अब भी खड़े न हुए तो उन्हें ताक़तवर जातियाँ जीने भी नहीं देंगीं। उनके पास कोई विकल्प नहीं बचा था, सिवाय इसके कि जान जोखिम लेकर वे अपने मान-सम्मान की लड़ाई छेड़ दें।
ये अच्छी बात है कि जिग्नेश मेवानी के रूप में उन्हें सही समय पर सही नेतृत्व भी मिल गया। जिग्नेश ने ही अपने एक्टिविस्ट मित्रों के साथ मिलकर अत्याचार लडत समिति का गठन किया और आंदोलन छेड़ा। उसने दलितों की भावनाओं और विचारों को सही ढंग से अभिव्यक्त करना शुरू कर दिया।
गाय की दुम अपने पास रखो-
अच्छी बात ये है कि जिग्नेश के ज़हन में दलितों की समस्या के कारण बहुत साफ़ हैं और समाधान भी। वे जानते है कि समस्या की जड़ में आर्थिक गैर बराबरी है। इसीलिए वे कह रहे हैं कि हर दलित को पांच एकड़ ज़मीन दो। उन्होंने दो टूक शब्दों में कह दिया है कि गाय की दुम तुम अपने पास रखो, हमें तो बस ज़मीन दे दो।
जिग्नेश और उनके साथियों के पास रणनीति भी है। मरे हुए जानवरों को उठाने से इंकार कर देने से ऊँची जातियों में हलचल मची हुई है। शासन-प्रशासन भी परेशान है। राजनीतिक बिरादरी भी समझ नहीं पा रही कि दलितों के इस विद्रोह को किस रूप में ले। ऊँची जातियों की राजनीति करने वाली बीजेपी और काँग्रेस दोनों इसी लिए दुविधाग्रस्त नज़र आ रही हैं।
आंदोलनकारियों ने सबसे समझदारी का काम ये किया है कि वे शक्तिशाली जातियों से सीधे टकराव मोल नहीं ले रहे हैं बल्कि सत्तारूढ़ दल और सरकार को चुनौती दे रहे हैं। इससे वे अपने ऊपर हिंसा की आशंका को उन्होंने कम किया है। हालाँकि गुजरात से आ रही ख़बरें यही बताती हैं कि समर्थ जातियाँ और गौ-आतंकवादी उनके ख़िलाफ़ हिंसा का माहौल बना रहे हैं।
वैसे ये अहिंसक चुनौती गाँधीनगर भर के लिए नहीं है, दिल्ली के लिए भी है और नागपुर के लिए भी। इसीलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह दोनों घबराए हुए हैं। राज्य में नेतृत्व परिवर्तन और फिर पीएम का ये बयान कि दलित भाईयों को न सताएं, भले ही उन्हें गोली मार लें, इसी का सीधा परिणाम था।
टालना नहीं टकराना चाहते हैं
15 अगस्त को लाल किले की प्राचीर से मोदी ने कहा कि वे समस्याओं को टालना नहीं टकराना चाहते हैं। दलित भी यही कह रहे हैं। इस बार वे किसी झाँसे में नहीं आना चाहते और न ही किसी और बहाने समस्या को टालना चाहते हैं। वे इससे टकराने के मूड में हैं, बल्कि टकरा रहे हैं।
यही वजह हैं कि उनके तेवर तीखे हैं। वे समझौते के मूड में नहीं हैं। वे संगठित हो रहे हैं और अपने संघर्ष को धार दे रहे हैं। वे ठोस एजेंडे के साथ अपनी लड़ाई को आगे बढ़ाने की तैयारी कर रहे हैं।
आगे बड़ी लड़ाई है
गुजरात के दलित आंदोलन को मिल रही सफलता की और भी कई वजहें हैं और उन्हें आंदोलनकारियों को ध्यान में रखना चाहिए। अव्वल तो ये कि मुख्यधारा का मीडिया उनका साथ नहीं देगा और उन्हें सोशल मीडिया का जमकर इस्तेमाल करना चाहिए।
दूसरे, प्रदेश में उनकी आबादी केवल 7 फीसदी है, जो कि राजनीतिक रूप से बहुत नहीं मानी जा सकती। अगर उत्तरप्रदेश में चुनाव न होते तो बीजेपी का प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय नेतृत्व उसे महत्व ही नहीं देता, बल्कि कुचलने की भी हर संभव कोशिश करता। इसलिए लाज़िमी है कि आंदोलनकारी उन वर्गों को भी अपने साथ जोड़ें जिससे उनकी राजनीतिक ताक़त बढ़े। पिछड़े और अल्पसंख्यक समुदायों के जुड़ने से उनकी ताकत मे इज़ाफा हो सकता है। ये सोशल इंजीनियरिंग ज़रूरी है।
तीसरे, इस आंदोलन को देश के दूसरे हिस्सों में भी फैलाने की कोशिश करनी होगी यानी दूसरे दलित आंदोलनों से भी उन्हें जुड़ना होगा। राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक शक्ति के रूप में उभरने पर ही उनका महत्व बढ़ेगा और वे अपनी माँगों को मनवा सकेंगे।
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