बरखा, राजदीप! अर्नब ही नहीं, अपराधी और भी हैं


पहले राजदीप और अब बरखा दत्त ने अर्नब गोस्वामी पर खुलकर हमला बोल दिया है। भारतीय मीडिया में शायद ऐसा पहली बार हो रहा है जब पत्रकार एक दूसरे के कामकाज पर खुल्लमखुल्ला उँगलियाँ उठा रहे हैं। राजदीप ने बहुत सधे ढंग से अर्नब को आड़े हाथों लिया था जबकि बरखा ने कोई कसर बाक़ी नहीं रखी।
बहुत से लोगों को लग सकता है कि ये तीन प्रतिद्द्वियों के आपसी बैर का नतीजा है। इसे राजदीप एवं बरखा के अर्नब से पिछड़ जाने की खिसियाहट के रूप में भी देखा जा सकता है। हो सकता है इसमें कुछ सचाई भी हो, मगर बड़े सच को नज़रअंदाज़ नही किया जाना चाहिए।

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बड़ा सच यही है कि अर्नब ग़ैर जिम्मेदार हो गए हैं, वे पत्रकारिता नहीं कर रहे, किसी प्रचारक की तरह व्यवहार कर रहे हैं। उन्होंने लोकप्रियता के मानदंड भले ही स्थापित कर लिए हों और मोदी दरबार में उनकी हैसियत चाहे जितनी बढ़ गई हो, मगर दर्शकों के बीच उनकी विश्सनीयता पाताल के नीचे जा चुकी है। लोग मानने लगे हैं कि  सरकार के प्रति उनका झुकाव अब सारी सीमाएं लाँघ चुका है और वे उसका ढोल पीटने वाले बनकर रह गए हैं।
मीडिया जगत में उनकी ये छवि बहुत पहले बन चुकी थी। बरखा दत्त की टिप्पणी से बहुत पहले मीडिया बिरादरी का बडा हिस्सा मान चुका है कि वे विशुद्ध रूप से सरकार की चमचागीरी कर रहे हैं। इसके लिए प्रमाणों की ज़रूरत नहीं है। एक महीने के न्यूज़ ऑवर के शो देख लीजिए आप खुद-ब-खुद समझ जाएंगे।



उनके द्वारा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का इंटरव्यू इस मामले में एक बड़े साक्ष्य के रूप में मौजूद है ही, मगर न्यूज़ ऑवर में वे जिस तरह के विषय चुनते हैं और फिर उन्हें जिस कोण से प्रस्तुत करते हैं उससे कोई भी अंदाज़ा लगा सकता है कि वे क्या कर रहे हैं और क्यों कर रहे हैं।

पिछले कई साल से उन्होंने अँधराष्ट्रवादी रुख़ अख्तियार कर रखा है मगर पिछले दो साल में तो वे जैसे पगला गए हैं। कश्मीर और पाकिस्तान से जुड़े मसलों पर तो वे उन्मादियों की तरह एंकरिंग करते हैं। ऐसा लगता है मानों वे सत्ता प्रतिष्ठान की विचारधारा के प्रचारक हों। वे नफ़रत एवं हिंसा का वातावारण बनाते हैं। वे पाकिस्तान पर हमले के लिए वातावरण बनाने में जुट जाते हैं, युद्धोन्माद फैलाने लगते हैं।

हाल में राजदीप सरदेसाई ने अपने ब्लॉग में फाकलैंड युद्ध के संदर्भ में बीबीसी की भूमिका उदाहरण देते हुए ठीक ही कहा था कि पत्रकार के लिए सच सबसे बड़ा होता है, देश से भी बड़ा। अगर सरकार ग़लत कर रही होती है तो वह इस बात की परवाह भी नही करता कि इसे तथाकथित देशभक्त पसंद करेंगे या नहीं।

ध्यान रहे कि फाकलैंड युद्ध के समय बीबीसी ने सरकार का पक्ष नहीं लिया था। संसद में इसकी आलोचना हुई थी और बीबीसी के प्रमुख से जवाबतलबी भी। मगर वे नहीं झुके। अर्नब चाहते हैं कि मीडिया सरकार के क़दमों लोटने लगे, जैसे वे इस समय लोट रहे हैं।

अर्नब का अहंकार और कार्यक्रम में शामिल मेहमानों के साथ दुर्व्यवहार तो पत्रकारिता एवं ऐंकरिंग का मार्यादाएं लाँघता रहता है। वे एक विचार लेकर बैठते हैं और चाहते हैं कि सब उससे सहमत हों। जो असहमत होता है उसे या तो वे अपमानित करते हैं या फिर बोलने ही नहीं देते। इस तरह एकतरफा संवाद करने की एक नई शैली उन्होंने विकसित कर ली है। टाइम्स नाऊ को उन्होंने दूरदर्शन का ही एक बेहतर संस्करण बना लिया है।
हद तो ये है कि वे सरकार के नुमाइँदे की तरह बर्ताव करते हुए अपनी बिरादरी को ही निशाना बनाने पर आमादा हो गए हैं। वे सत्ता से माँग करते है कि जो उनसे असहमत है उसे गिरफ्तार करके दंड दे। बरखा दत्त ने ठीक ही कहा है कि उन्हें न तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की परवाह है और न ही लोकतंत्र की। वे निरंकुशवाद की वकालत कर रहे हैं जो कि बेहद ख़तरनाक़ है।

लेकिन बरखा दत्त एवं राजदीप सरदेसाई से पूछना चाहिए कि अर्नब गोस्वामी ऐसा क्या कर पा रहे हैं? कहीं उनकी कंपनी यानी टाइम्स समूह उनसे यही तो नहीं चाहता? किसी भी मीडिया संस्थान में संपादक मालिकों के विरूद्ध नहीं जा सकता। और टाइम्स समूह तो अपने संपादकों को गुलाम बनाकर रखने के लिए कुख्यात है।
वास्तव में जो चीज़ें अर्नब के लिए कही जा रही हैं दरअसल वे टाइम्स समूह पर ज़्यादा सही बैठती हैं। टाइम्स समूह चमचागीरी पर उतारू है, वही अंधराष्ट्रवाद के रक्तपिपासु शेर की सवारी कर रहा है।

कार्पोरेट मीडिया के चरित्र को अनदेखा करके केवल एक व्यक्ति पर हमला करना बताता है कि या तो बरखा तथा राजदीप जैसे लोगों की समझ में कमी है या फिर वे उस पर हल्ला बोलने से घबराते हैं जो इस सबके लिए मूल रूप से ज़िम्मेदार है।

टाइम्स समूह को चाहिए सत्ता से निकटता और व्यावसायिक सफलता। उसके लिए वह कुछ भी कर रहा है। उसे न तो अँधराष्ट्रवाद से परहेज़ है और न ही अर्नब गोस्वामी की उन्मादी ऐंकरिंग से। यही हाल देश के कुछ और चैनलों का भी है। मगर सवाल उठता है कि बोले कौन?

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