राजनीति-फिल्मों की राह पर मीडिया


प्रभाष जोशी भन्नाए हुए हैं। उनका दर्द यह है कि पत्रकारिता में सरोकार समाप्त हो रहे हैं। हर कोई बाजार की भेंट चढ़ गया है। क्या मालिक और क्या संपादक, सबके सब बाजारवाद के शिकार। कभी देश चलानेवाले नेताओं को मीडिया चलाता था।

आज, मीडिया राजनेताओं से खबरों के बदले उनसे पैसे वसूलने लगा हैं। देश भर में दिग्गज पत्रकार कहे जाने वाले प्रभाष जोशी बहुत आहत हैं। अगर सब कुछ ऐसे ही चलता रहा, जैसा चल रहा है, तो सरोकारों को समझने वाले लोग मीडिया में ढूंढ़ने से भी नहीं मिलेंगे। हालात वैसे ही होंगे, जैसे राजनीति के हैं। वहां भी सरोकार खत्म हो रहे हैं। पद और अपने कद के लिए कोई भी, कुछ करने को तैयार है।
यह विकास की गति के अचानक ही बहुत तेज हो जाने का परिणाम है। अपना मानना है कि भारत में अगर संचार से साधनों का बेतहाशा विस्तार नहीं हुआ होता, तो आज जो हम यह, भारतीय मीडिया का विराट स्वरूप देख रहे हैं, यह सपनों के पार की बात होती। खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का बाजार हाल ही के कुछ सालों में बहुत तेजी से फला-फूला है। यह नया माध्यम है। सिर्फ दशक भर पुराना। इसीलिए इसमें जो लोग आ रहे हैं, उनमें नए लोगों की संख्या बहुत ज्यादा है। लड़के आ ही रहे हैं, तो लड़कियां भी बड़ी तादाद में छा रही हैं। अपन इनको संचार क्रांति की नई पैदावार मानते है। इस नई पैदावार के लिए, हर बात नई है। जिनको पता ही नहीं है कि सरोकार शब्द का मतलब क्या होता है, उनसे करोकारों की उम्मीद पालना भी कोई खास समझदारी का काम नहीं होगा। नए जमाने के इस नए माध्यम में तेजी से अपनी जगह बनाती इस नई पीढ़ी में बहुत तेजी से आगे बढ़ने की ललक ने ही इस पीढ़ी का काफी हद तक कबाड़ा भी किया है। सफलता जब सही रास्ते से होते हुए सलीके के साथ आती है, तो ही वह अपने साथ सरोकार भी लेकर ही आती है। लेकिन मनुष्य जब सिर्फ आगे बढ़ने की कोशिश में खुद को बेतहाशा झोंक देता हैं तो वह कुछ मायनों में आगे भले ही बढ़ जाए, मगर उसकी ीमत भी उसे अलग से चुकानी पड़ती है। और मीडिया में ही नहीं किसी भी पेशे में आगे बढ़ने की यह ललक अगर महिला की हो तो फिर रास्ता और भले ही आसान तो हो जाता है। पर, उसकी कीमत की तस्वीर फिर कुछ और ही हो जाती है। दरअसल यह मीडिया की बदली हुई तस्वीर है। और यही असली भी है। बाजारवाद ने मीडिया को ग्लैमर के धंधे में ढाल दिया है। और सेवा को कोई स्वरूप या फिर मिशन, जब धंधे का रूप धर ले, तो सरोकारों की मौत बहुत स्वाभाविक है। ग्लैमर के बाजार की चकाचौंध वाले मीडिया का भी इसीलिए यही हाल है।

जो लोग ग्लैमर की दुनिया में हैं, वे इस तथ्य से भी अच्छी तरह वाकिफ हैं कि दुनिया के हर पेशे की तरह इस धंधे में भी दो तरह के लोग है। एक वे, जो तरक्की के लिए तमाम हथकंडे इस्तेमाल करके किसी मुकाम पर पहुँच जाना चाहते हैं। और अकसर पहुंच भी जाते है। दूसरे वे हैं, जिनके लिए सफलता से ज्यादा अपने भीतर के इंसान को, अपने ईमान के और अपनी नैतिकता को बचाए रखना जरूरी होता है। ऐसों को फिर तरक्की को भूल जाना पड़ता है। अब पूंजीवाद के विस्तार और बाजारीकरण के दौर में नए जमाने का यह नया माध्यम सेवा और मिशन के रास्ते छोड़कर ग्लैमर के एक्सप्रेस हाई-वे पर आ गया है। इसीलिए, राजनीति और फिल्मों की तरह मीडिया में भी लोग अपनी जगह बनाने, उस बनी हुई जगह को बचाए रखने और फिर वहां से आगे बढ़ने के लिए कुछ भी करने को तैयार है। भले ही यह बहुत खराब बात मानी जाती हो कि आगे बढ़ने और कमाने की होड़ में हर हथकंडे का इस्तेमाल करने के इस गोरखधंधे की वजह से ही उद्देश्यपरक पत्रकारिता और सरोकार खत्म हो रहे हैं। लेकिन हालात ही ऐसे हैं। आप और हम क्या कर सकते हैं। हम यह सब-कुछ बेबस होकर लाचार होकर यह सब देखने को अभिशप्त हैं। प्रभाषजी का आहत होना स्वाभाविक है। जो आदमी पूरे जनम, सरोकारों के साथ लेकर चला, वह दुखी नहीं होगा तो क्या करेगा। आज मीडिया पूरी तरह बाजार का हिस्सा है। फिर बाजार है, तो सामान है। और सामान है, तो कीमत भी लगनी ही लगनी है। इसीलिए उस दिन, जब एक नए-नवेले पत्रकार ने महाराष्ट्र के आने वाले विधान सभा चुनावों को देखकर अपने एक पुराने साथी राजनेता से पांच लाख रुपये दिलवाने की डिमांड अपने से की, तो बहुत बुरा लगा। बुरा रगने की एक बड़ी वडह यह भी तही कि उस पत्रकार ने उसी अखबार के मालिकों की डिमांड अपने सामने रखी थी, जिसका मुंबई में जन्म ही अपने हाथों हुआ। अपन दो साल उसके संपादक रहे हैं, कैसे हां कह पाते। अपन प्रभाषजी की परंपरा के वाहक हैं। सो, सुना-अनसुना कर दिया। अपना मानना है कि दर्द का बोझ दिल में ढो कर जीने से कोई खुशी हासिल नहीं होती। सो, उस मामले को यहां लिखकर उस दर्द को सदा के लिए यहीं जमीन में गाड़ रहे हैं। लेकिन, यह जो बाजारवाद की आड़ लेकर मालिकों ने पत्रकारों को वेश्या बाजार की तरह सरे राह बिकने को खड़ा कर दिया है, ये हालात अगर परंपरा में तब्दील हो गए तो किसी की भी इज्जत नहीं बचेगी। प्रभाष जी, इसीलिए आहत हैं।

माना कि आज जो लोग मीडिया में हैं, उनमें से ज्यादातर वे हैं, जो पेट पालने के लिए रोटी के जुगाड़ की आस में यहां आए है। वे खुद बिकने और खबरों को बेचने के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं। बाजारीकरण के इस दौर ने खासकर मेट्रो शहरों में काम कर रहे ज्यादातर मीडिया कर्मियों को सुविधाभोगी, विचार विहीन, रीढ़विहीन, संवेदनहीन और अमानवीय बना दिया है। यह सब आज के अखबारों की शब्दावली और न्यूज टेलीविजन की दृश्यावली देखकर साफ कहा जा सकता है। हमारे साथी पुण्य प्रसून वाजपेयी की बात सही है कि कोई दस साल पहले हालात ऐसे नहीं थे। आज भले ही मीडिया का तकनीकी विस्तार तो खासा हुआ है। लेकिन पत्रकारों के दिमागी दायरे का उत्थान उतना नहीं हो पाया है। एक दशक पहले तक के पत्रकारों के मुकाबले आज के मीडिया जगत को चलाने वाले मालिकों और काम करने वाले लोगों की सोच में जमीन आसमान का फर्क है। तब राजेन्द्र माथुर थे। उदयन शर्मा थे और एसपी सिंह सरीखे लोग थे। इनकी ही जमात के प्रखर संपादक प्रभाष जोशी आज भी है। इस मामले में अपन खुश किस्मत हैं कि इन चार में से उदयनजी को छोड़ शेष सभी तीनों, राजेन बाबू और एसपी के साथ नवभारत टाइम्स में तीन साल काम किया और प्रभाषजी के साथ एक दशक तक जनसत्ता में रहकर उनका भरपूर प्यार पाया। लेकिन मीडिया के बाजारवाद की भेंट चढ़ जाने को अपन ने स्वीकार कर लिया है। अपन ना तो पुराने हैं और ना ही नए। अपन बीच के हैं। इसलिए, इस बदलाव को प्रभाषजी की तरह आहतभाव से देखकर दुखी तो बहुत होते हैं, पर ढोना नहीं चाहते। अपन जानते हैं कि ना तो अपन बिक सकते हैं, और ना ही अपन से कुछ बेच पाना संभव हैं। लेकिन यह भी मानते हैं कि बिकने और बेचने को देखकर अपने दुखी भी होने से आखिर आज हो भी क्या जाएगा। पूरा मीडिया ही जब मिशन के बजाय प्रॉडक्ट बन गया है, तो आप अकेले कितनों को सुधार पाएंगे, प्रभाषजी। पूरा परिदृश्य ही जब पतीत हो चुका हैं। और, आप यह भी जानते ही हैं कि हालात में सुधार की गुंजाइश भी अब कम ही बची है। क्योंकि जहां से भी मिले, जैसे भी मिले, आज के ज्यादातर मालिकों को पैसा ही सुहाने लगा है। यह नया जमाना है। आज ना तो आप और ना ही हम, किसी नए रामनाथ गोयनका जैसे किसी मालिक को पैदा कर सकते, प्रभाषजी। जो, नोटों की गड्डियों के ठोकर मारकर सरोकारों के लिए संपादक के साथ खड़ा होकर सत्ता से पंजा भिड़ा ले। अपना मानना है कि हजार हरामखोरों के बीच अगर एक भी भला आदमी कहीं ककिसी कोने में भी बैठा हुआ मिला तो बाकियों की इज्जत भी बची रहती है। तो फिर, आप तो आज भी प्रज्ञा पुरुष की तरह मुख्य धारा में हैं, प्रभाषजी। मीडिया की दुर्गति देखकर अपनी आप जान थोड़ी कम जलाइए। आपकी आज कुछ ज्यादा ही जरूरत है, ताकि मीडिया की इज्जत बनी और बची रहें। वरना, तो फिल्मों और राजनीति की तरह इसका भी करीब-करीब कबाड़ा हो ही चुका है। हुआ है कि नहीं।
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