वास्तव में पत्रकारिता की यही स्वस्थ परंपरा है जो उसे सम्मान का हक़दार बनाती है, उसकी विश्वसनीयता को बरकरार रखती है। अफसोसनाक़ है कि भारतीय मीडिया में इस परंपरा का सर्वथा अभाव दिखता है। एक द हिंदू अख़बार ही है जो नियमित रूप से भाषा तथा तथ्यों मे हुई ग़लतियों को प्रकाशित करते हुए स्वीकार करता है। दूसरा ऐसा कोई मीडिया संस्थान नहीं है जो ऐसा दुस्साहस करता हो। इसके विपरीत कोशिश ये होती है कि उस भूल को भुला दिया जाए, कालीन के नीचे दबा दिया जाए। बड़े-बड़े अखबार उन्हें गंभीरता से नहीं लेते और न ही उससे सबक सीखते हैं। आप किसी पत्र-पत्रिका में अपनी ग़लती को स्वीकार करने और उस पर माफ़ी माँगने का उपक्रम नहीं देखेंगे। अगर होगा तो कहीं ऐसी जगह जो किसी को नज़र न आए या इतने कम आकार में हो कि ठीक से पढ़ा भी न जा सके। अधिकांश मौक़ों पर ये बड़प्पन भी स्वेच्छा से नहीं दिखाया जाता, बल्कि किसी दबाव में आकर उसे ऐसा करना पड़ा होगा। मान हानि के मामलों में तो यही होता है। इसी तरह अगर किसी ने किसी रिपोर्ट का खंडन या प्रतिवाद भेजा है तो तय मानिए कि वह नहीं छपेगा और छपेगा तो औपचारिकता पूरी करने के लिए। अकसर गलत व्यक्तियों की तस्वीरें छाप दी जाती हैं और ध्यान दिलाए जाने पर भी वे भूल सुधार नहीं करते हैं। ऐसी ही ढिठाई के एक मामले में एक अँग्रेज़ी चैनल को सौ करोड़ का मुकद्दमा तक झेलना पड़ा है।
न्यूज़ चैनलों का हाल तो इस मामले में सबसे ज़्यादा बुरा है। ख़ास तौर पर अगर आप हिंदी न्यूज़ चैनलों के रवैये का अध्ययन करें तो आपको बेहद निराशा होगी। एक तो उनमें ग़लतियों की भरमार होती है। ये ग़लतियां भाषा और वर्तनी की ही नहीं, तथ्यों-कथ्यों की भी होती हैं। कई बार तो भयानक भूलें होती हैं, ऐसी कि डूब मरने वाली। मगर उन्हें दुरुस्त करना तो दूर उनको लेकर उनमें लज्जा का कोई भाव तक नहीं जागता। अगर आपको किसी हिंदी चैनल के न्यूज़ रूम में कुछ दिन बिताने का मौक़ा मिले तो आपको समझ में आएगा कि ग़लतियों के संबंध में उनका रवैया किस कदर कामचलाऊ किस्म का है। वे उन्हें निश्चिंत भाव से कामकाज का स्वाभाविक हिस्सा मानकर चलते हैं। ऐसा नहीं है कि ये संस्कृति केवल निचले स्तर पर काम करने वाले मीडियाकर्मियों में ही हो, वरिष्ठ एवं अनुभवी भी ग़लतियाँ होने पर कंधे उचकाते हुए आगे बढ़ जाते हैं। ग़लतियों के मामले में उनका नरम या उदासीन रवैया ग़लतियाँ करने वालों के हौसलों को बढ़ाने का काम करता है।
ज़ाहिर है कि जब ग़लतियों को स्वाभाविक माना जाता है और उनको सुधारने की कोई ज़रूरत महसूस नहीं की जाती तो स्थितियाँ लगातार बिगड़ती चली जाएंगी और यही हुआ है। आज एक सामान्य पाठक या दर्शक से पूछ लीजिए वह प्रमुख अख़बारों या चैनलों की भाषा में हो रही भूलों पर ही पूरा भाषण आपको पिला देगा। हिंदी का एक चैनल अपने कंटेंट के लिए तो अकसर सराहा जाता है मगर उसकी भाषा की ग़लतियों पर किसी का भी सिर पीटने का मन करेगा। लगभग सभी न्यूज़ चैनल नुक्तों के ग़लत प्रयोग के लिए बदनाम हैं। लेकिन भाषा तो पत्रकारिता का एक पक्ष है। असल बात तो ये है कि जो समाचार या जानकारी आप दे रहे हैं उसे तो जाँच-परख कर दें और अगर कभी उसमें कोई भूल-चूक होती है तो उसे दुरूस्त करने को लेकर गहरी प्रतिबद्धता पत्रकारों में हो। मगर वह नहीं है। उन मामलों में भी नहीं है, जो सामाजिक सद्भाव को बिगाड़ सकती हैं या किसी व्यक्ति की सार्वजनिक प्रतिष्ठा को बेवजह ठेस पहुँचा सकती हैं। जेएनयू और वेमुला वाले मामले में मीडिया ने कितनी ग़लत जानकारियाँ प्रसारित या प्रकाशित कीं इनका कोई हिसाब किसी ने नहीं लगाया है मगर यदि कभी किसी ने ऐसा किया तो वह भारतीय पत्रकारिता के इस स्याह पक्ष को बहुत अच्छे से उजागर करेगा।
ऐसा लगता है कि भारतीय मीडिया का पूरा ज़ोर खुद को सजाने-सँवारने में है यानी उसे लगता है कि चमकदार पैकेजिंग में कुछ भी परोसा जाएगा तो लोग कंटेंट की कमज़ोरी को नज़रअंदाज़ कर देंगे। लेकिन ये एक मिथ्या धारणा है और ऐसा होता नहीं है। ख़ास तौर पर जब बड़ी-बड़ी ग़लतियाँ होने लगें। लापरवाहियों की आदत ने ऐसे हालात पैदा कर दिए हैं जिनमें बड़ी भूलों की संख्या बढ़ गई है। मीडिया कर्मियों को समझना चाहिए कि उनके इस आचरण की वजह से मीडिया लगातार गर्त में चला जा रहा है। भाषा और समाग्री दोनों के ही मामले में एक तरह की अराजकता पसर गई है और उसे दूर करने के प्रयास करता कोई नज़र नहीं आ रहा।
द गार्डियन का मामला या ऐसे ही और उदाहरण भारतीय मीडिया के लिए ये एक बड़ी नसीहत बन सकते हैं। उसे इनसे सीखना चाहिए। ये सब मानते हैं कि ग़लतियाँ होंगी, मगर उन्हें कम किया जा सकता है। साथ ही अगर ग़लतियाँ होने पर उन्हें स्वीकारने, सुधारने और आवश्यकतानुसार माफ़ी माँगने का बड़प्पन दिखाया जाएगा तो उसकी साख बढ़ेगी। ये थोडा लंबा और मुश्किल रास्ता ज़रूर है क्योंकि उसे पत्रकारिता के मानदंड ऊंचे करने पड़ेंगे और अधिकांश पत्रकारों को उस स्तर तक उठने के लिए मशक्कत भी करनी पड़ेगी। ख़ास तौर पर नेतृत्व को क्योंकि गंगा मैली होनी वहीं से शुरू होती है।
ये ज़िम्मेदारी मीडिया पढ़ाने और पत्रकारिता सिखाने वाले संस्थानों पर भी उतनी ही है। हालत ये है कि अधिकांश संस्थानों में अच्छी भाषा सिखाने पर कोई ज़ोर नहीं दिया जाता और न ही ये बताया जाता है कि तथ्य कितने पवित्र होते हैं। उनका लक्ष्य केवल मीडिया के ग्लैमर से आकर्षित छात्रों को उल्लू बनाकर अपना स्वार्थ सिद्ध करने में होती है। इसीलिए नई पीढ़ी के पत्रकारों में ये कमज़ोरियाँ ज़्यादा दिखलाई पड़ती हैं। दूसरी समस्या ये भी है कि पत्रकारों में पढ़ने-लिखने की आदत है नहीं या वे इससे विमुख हो गए हैं। इसका असर उनकी भाषा, ज्ञान और सरोकार सब पर पड़ा है। यानी कुँए में ही भंग घुली हुई है। लेकिन यदि एक बार मीडिया संस्थान में अगर भूल होने पर माफी माँगने और उसे ठीक करने का संस्कार आ जाए तो बहुत सारी चीज़े अपने आप ठीक होने लगेंगीं।