शिक्षा को मुनाफ़ाखोरों से तो आज़ाद करो


शिक्षा व्वस्था में बुनियादी बदलाव का ऐलान करके केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिबल को वाहवाही तो खूब मिली, लेकिन अब उन्हें अपने क़दम पीछे खींचने पड़ सकते हैं। इसकी वजह यही है कि घोषणाएं करने के पहले उन्होंने ज़रूरी होम वर्क तक नहीं किया था।

कायदे से कोई भी ऐलान करने से पहले राज्यों से सलाह-मशवरा किया जाना चाहिए था, उनकी दिक्कतों को समझा जाना चाहिए था। मगर सौ दिनों में सब कुछ करने पर आमादा सरकार के मंत्री इसकी ज़रूरत नहीं समझ रहे हैं और बुल्डोज़र चलाए जा रहे हैं। इसका सीधा परिणाम ये निकलेगा कि वे मुँह की खाएंगे।
दरअसल, बिना ज़मीनी सचाई को जाने-समझे सुर्खियाँ बटोरने के लिए जब कोई काम किया जाता है तो उसका यही अंजाम होता है। मानव संसाधन मंत्री ने ऐलान तो कर दिया कि पूरे मुल्क में एक ही पाठ्यक्रम होगा और दसवीं बोर्ड की परीक्षा को भी बंद कर दिया जाएगा, मगर अब उन्हें ये अहसास हो गया होगा कि ये काम इतना आसान नहीं है। कई राज्यों ने उनके एजेंडे से असहमति जता दी है। े इसे लागू करने में असुविधा महसूस कर रहे हैं।
लेकिन बात सिर्फ राज्य सरकारों से मशवरे की ही नहीं है। कपिल सिबल कुछ मामलों में तो वे गलत राह पर भी चल पड़े हैं, जो हमारी उच्च शिक्षा व्यवस्था के लिए घातक भी हो सकता है। इनमें से एक है विदेशी शिक्षा संस्थानों के लिए दरवाज़े खोलना। सरकार सोच रही है कि उसने उन्हें छूट दी नहीं कि हार्वर्ड और कैंम्ब्रिज हिंदुस्तान में अपने परिसर खोल देंगे और देश में विश्व स्तर की शिक्षा मिलने लगेगी। मगर होगा इसका उल्टा। विदेशों के घटिया शिक्षा संस्थाना मुनाफ़े कमाने के लिए फटाफट यहाँ अपना जाल फैला लेंगे और उच्च शिक्षा का और भी कबाड़ा कर डालेंगे।

ध्यान रहे कि पिछले एक दशक में देश में उच्च शिक्षा का स्तर बहुत ज़्यादा गिरा है। इसकी सबसे बड़ी वजह निजी क्षेत्र में धड़ाधड़ विश्वविद्यालयों को मंज़ूरी देना है। इसकी शुरूआत एनडीए सरकार के कार्यकाल में हुई थी और यूपीए अब इसे और भी बढ़ावा देने की फिराक में है। आज़ादी के बाद से नब्बे के दशक तक कुल 29 विश्वविद्यालय थे मगर अगले दस साल में इनकी संख्या 125 तक पहुंच गई। अगर निजीकरण से शिक्षा सुविधाओं का विकास होता तो अच्छी बात होती मगर हुआ ये है कि ये छात्रों के शोषण का ज़रिया भर बनकर रह गए हैं। शैक्षिणिक सुविधाओं के नाम पर इनमें कुछ नहीं होता मगर मोटी फीस वसूलने के मामले में ये सबसे आगे होते हैं। अब अगर विदेशी शिक्षा संस्थानों को भी इन्हीं की तरह मंज़ूरी मिलने लगी तो क्या होगा, समझा जा सकता है।

देश में सबसे बुरी स्थिति प्राथमिक शिक्षा की है। ख़ास तौर पर ग्रामीण और अर्ध शहरी इलाकों में। ने तो ज़रूरी सुविधाएं मुहैया हैं और न ही प्रशिक्षित शिक्षक। बहुत से राज्यों में तो शिक्षक अस्थायी नियुक्तियों और बहुत कम वेतन पर काम कर रहे हैं। अनुमान लगाया जा सकता है कि अध्यापन में उनकी कितनी दिलचस्पी होगी और वे क्या पढ़ाते होंगे। शहरी इलाक़ों में भी हालात कुछ ख़ास अच्छे नहीं हैं। केंद्रीय और नवोदय विद्यालयों को छोड़ दें तो सरकारी स्कूल पढ़ाई-लिखाई से जुड़ी सहूलियतों के मामले में फिसड्डी हैं।

सब चाहते हैं कि शिक्षा के क्षेत्र में व्याप्त विसंगतियाँ दूर हों। छात्रों और अभिभावकों का स्कूलों एवं कोचिंग सेंटर के द्वारा शोषण न हो। वे तनाव से मुक्त हों। देश में एक जैसा पाठ्यक्रम हो और परीक्षा प्रणाली में सुधार हो इससे भी भला कौन असहमत हो सकता है। मगर ये काम वैसे नहीं हो सकता जैसे कि केंद्र सरकार करना चाहती है। सौ दिन में तो हरगिज़ नहीं।

वास्तव में अगर कपिल सिबल कुछ करना चाहते हैं तो उन्हें पहले शिक्षा-व्यवस्था को मुनाफ़ाखोरों के चंगुल से निकालने के बारे में सोचना चाहिए, शिक्षा को उद्योग बनने से रोकना चाहिए, निजीकरण एवं विदेशीकरण से बचना चाहिए और शिक्षा पर होने वाले खर्च को बढ़ाना चाहिए। यूपीए सरकार ने बजट में शिक्षा पर छह फ़ीसदी खर्च करने का ऐलान तो कर दिया था मगर किया उसका आधा ही। मगर ये टेढ़ा काम है और होम करते हाथ भी जल सकते हैं।

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