प्रकाशित संपादकों के लिए एक अप्रकाशित व्यंग्य


पिछले दिनों कुछ पत्र-पत्रिकाओं और वेबज़ीनों पर निर्देश जारी हुए हैं कि लेखकगण अपनी अप्रकाशित और मौलिक रचनाएं ही भेजें। मानाकि मौलिकता एक विवादास्पद और ग़ैरज़रुरी मसला है मगर संपादकों द्वारा अप्रकाशित रचनाओं की मांग और चाहत कोई ऐसी नयी और ह्रदय-विदारक घटना नहीं है कि लेखकजन एकदम से डरने-घबराने लगें।

दूसरी चीज़ों से ध्यान हटाने-बंटाने के लिए कुछ संपादक ऐसी शोशेबाज़ी पहले भी दिखाते रहे हैं। हां, पिछले दिनों कुछ ज़्यादा ही सख्ती देखने में आयी है ! आखिर क्यों ? जहां तक (तसलीमा जैसे मसअलों के बाद) कुछ लेखकों द्वारा अपनी ‘‘अभिव्यक्ति की क्षतिपूर्ति’’ की बात है, बात कुछ-कुछ समझ में आती है। कुछ संपादक कहते भी हैं कि मानदेय भी देंगे। कुछ देते भी हैं। फ़िर तो ठीक भी है। पैसा देंगे तो काम भी तबियत से लेंगे। क्रिकेट-खिलाड़ी तक ऐसी शर्तों के सामने ढेर हो चुके हैं। फ़िर लेखकों की तो बिसात ही क्या !

आईए, अब कुछ ऐसी चर्चाएं करें जो 99 प्रतिशत संपादकों के लिए ग़ैरज़रुरी और 20,30,40,50 प्रतिशत लेखकों (सही आंकड़ा लाना संभव नहीं और देना बुद्धिमानी न होगी) के लिए ज़रुरी हैं। एकाध प्रतिशत में राजेंद्र यादव और विष्णु नागर जैसे संपादक आते हैं जो रचना पर स्वीकृति/अस्वीकृति कई बार तो 15 ही दिन में भेज देते हैं। भारतवर्ष में दूर-दूर तक फैली संपादकीय संस्कृति को देखें तो लगता है कि इनका कोई पेंच ढीला तो नहीं है। ऐसी क्या मजबूरी है इनकी जिसके तहत जवाब तुरत-फुरत आ जाता है। बरक्स दूसरे संपादकों को देखें जो पट्ठे रचना पर निर्णय तो छोड़िए, टिकट लगा लिफाफा या पोस्टकार्ड तक वापिस नहीं भेजते। सोचता हूँ क्या करते होंगे वे इस तरह ‘‘कमाए हुए’’ लिफ़ाफ़ों का। पत्नी क राखियां साले को भेजते होंगे चेपियां लगा-लगाकर ! आखिर 5000 साल पुरानी संस्कृति है। जिसमें पत्नी, साले, लिफाफे और त्यौहार सबकी अपनी-अपनी जगह है। पत्नियों और सालों के हालात कुछ-कुछ बदल रहे हैं। लेखकों और उनके लिफाफों का जो होगा, होगा। त्यौहार और ‘‘व्यवहार’’ नैतिकता और ईमान से ऊपर हैं ही। आदमी ‘‘व्यावहारिक’’ हो तो रोज़ त्यौहार मना सकता है।

राजेंद्र यादव और विष्णु नागर का सनाम ज़िक्र मैंने इसलिए किया कि इनकी मैंने तारीफ़ की है। और इस क्रिया से मुझे कुछ फ़ायदा होने की, धूमिल ही सही, संभावनाएं हैं। आगे जिनका अनाम ज़िक्र करुंगा अगर समझ गए तो खासा नुकसान होने की भी संभावनाएं हैं। पर व्यंग्य में न्यूनतम रिस्क तो लेना ही पड़ता है। इस पर मेरे ( काल्पनिक ) फैमिली मनोचिकित्सक का कहना है कि क्या तुम्हें न्यूनतम और अधिकतम के अर्थ और फ़र्क ठीक से मालूम हैं? उसका कहना है कि अगर मैंने कहीं उसका सनाम ज़िक्र किया तो वह मुझे पागल घोषित कर देगा। मैंने उसे बताया कि इससे उसका ही नुकसान होगा। मुझे तो वैसे भी ज़्यादातर व्यवहारिक लेखक/संपादक और नाॅन-लेखक/संपादक मन ही मन ऐसा ही मानते हैं/मानते होंगे/मानना चाहिए। इससे उल्टे तुम्हारा नाम ही लाइम, प्राइम या क्राइम-लाइट में आ जाएगा। वह समझ गया। इतना भी मनोचिकित्सक नहीं था।

जिस तरह मनोचिकित्सक मेरा नेचुरल ‘‘एलाय’’ या मित्र है उसी तरह कई संपादक लेखकों के नेचुरल ‘‘एलाय’’मित्र होते हैं। इसमें दोनों पक्षों के लिए विभिन्न प्रकार की आसानियां हो जाती हैं। मसलन कोई वरिष्ठ या कनिष्ठ लेखक बिना कोई सूचना दिए इस दुनिया को हमेशा के लिए ‘‘सी ऑफ’’ कर देता है। अब एक मित्र के पास मित्र का फ़ोन आता है (संपादक का नहीं)। ‘‘यार, रातोंरात उनपर ‘‘कुछ’’ चाहिए !’’ अब आपको तो पता है आदमी पट्ठा जन्मजात राजनीतिज्ञ है। इधर का मित्र आवाज़ कुछ ऐसी निकालता है जैसे कब्र में से बोल रहा हो, ‘‘ अब यार...इतनी रात गए....एकदम से......कड़ी परीक्षा में डाल रहे हो गुरु......’’...यार......’’, उधर का मित्र बोलता है.......‘‘पहले जो एक लिखा था इन्हीं पर.....वही भेज दो ऐन्ट्रो-शैन्ट्रो बदलकर......या फिर जो उनपर लिखा था उसी को भेज दो नाम, प्रसंग, संदर्भ..ये, वो बदलकर....’’। इधर का मित्र जो मन ही मन इसी दैव-वाक्य की प्रतीक्षा कर रहा है, ऊपर-ऊपर कहता है,.....‘‘ क्यों ग़लत काम करवाते हो गुरु........चलो तुम कहते हो तो भेज देता हूँ.....।’’ लो जी, दोस्ती के तवे पर, ऐन्ट्रो-शैन्ट्रो पलट कर, एक गरमा-गरम, अप्रकाशित लेख तैयार है। पर अब उधर के मित्र यानि संपादकजी को अपराध-बोध से उबरने के लिए कुछ जस्टीफिकेशन भी तो चाहिएं। सोचते हैं, ‘‘ अब क्या हमें पता होता है कि कोई अचानक मर जाएगा ! रहे होते 4-6 महीने खाट पर, दाखिल-वाखिल होते अस्पताल में, चर्चा-वर्चा हुई होती बीमारी की, लेखकों और सरकार की ग़ैरज़िम्मेदारी की......इस दौरान अंदाज़ा तो हो जाता ‘‘डेट ऑफ ऐक्सपायरी’’ का.........अप्रकाशित सामग्री के ढेर लगा देता........’’

ऐसे ही एक संपादक को रचना भेजी। 6 माह तक कोई जवाब नहीं। पैसा और वक्त फालतू थे। सो रीमाइंडर भी डाले। संपादकजी शायद किसी इंटरनल या बाहरी यात्रा पर थे। संपादक हैं, पचास काम होते हैं। आवारगी से लेकर लाचारगी तक ! लेखक ठहरा फ़ालतू और ग़ैर ज़िम्मेदार। रचना दूसरी जगह भेज दी। इस संपादक के पास रचनाओं की कमी रही होगी। छः महीने में ही छाप दी पट्ठे ने। एक साल बाद पहले वाले ने भी छाप दी। एक साल से सोती हुई रचना एकाएक इन संपादकजी के लिए भी प्रासंगिक हो गई। अब कल्ले लेखक क्या कल्लेगा नियम कानूनों का और संपादकों का ?!

एक बार एक मित्र ने एक जगह ग़ज़लें भेजीं। मित्र ने क्या मैंने ही भेजीं (अब डरना बंद भी करो यार)। जवाब आया हम ग़ज़ले नहीं छापते ! पर अगले अंक में ग़ज़लें तो छपी हैं ! पर किसी और की हैं। अंदाज़ा लगाया कि संपादक शायद यह लिखना भूल गया (डिसलेक्सिया !) है कि तुम्हारी जैसी ग़ज़लें नहीं छापते। या तुम्हारे गुट वालों की नहीं छापते। या तुम्हारे जैसे विचारों की नहीं छापते। वगैरह...। या फिर ये जो छपी हैं असल में ग़ज़ले नहीं हैं, प्रूफ की ग़लती से ‘‘ग़ज़लें’’ शीर्षक चला गया है। इधर कई संपादक ऐसे भी सुनने में आए हैं जो मानदेय की दबी-कुचली चाहत रखने वाले लेखकों को ऐसे देखते हैं जैसे किसी पागल को या डायनासोर को या घर के रसोईघर में सांप को देख लिया हो। ऐसे संपादकों का दर्द कई बार इन शब्दों में प्रकट होता है (होगा), ‘‘यार एक तो तीन पेज का लेख छाप दिया साले का......इतनी जगह में विज्ञापन छापते तो कितने पैसे मिलते हमें.......और ये पट्ठा है कि उल्टे पैसे मांग रहा है ....अजीब आदमी है पट्ठा ....’’

बहरहाल, इस लेख में मैंने सही मायनों में स्वतंत्र लेखकों और ग़लत मायनों में निरंकुश संपादको की बात उठाई है। अगर आप उनमें से नहीं हैं तो मान लीजिए आपने इसे पढ़ा ही नहीं है। फिर भी अगर आपकी भावनाओं को चोट पहुँची है तो जैसाकि आजकल फैशन है, आप आकर मेरे कपड़े फाड़ सकते हैं, मेरी चंदिया पर जूते बजा सकते हैं।
कमज़ोरों द्वारा गाल बजाना और कमज़ोरों पर जूते बजाना दोनों ही बातों पर हमारे यहाँ गर्व किया जाता है।

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