अब सरकार को नोटबंदी के सियासी नतीजे भुगतने होंगे


अरूण जेटली और संबित पात्रा सोशल मीडिया और टीवी चैनलों पर चाहे जो कहें सचाई यही है कि रिजर्व बैंक की रिपोर्ट ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार की सारी हेकड़ी एक झटके में निकालकर रख दी है। नोटबंदी को आदर्शवाद का जो चोला पहनाकर पेश किया गया था, वह तार-तार हो गया है और उनकी असलियत सरे आम हो गई है।
political consequences of the demonetisation

रिजर्व बैंक की रिपोर्ट चीख-चीखकर कह रही है कि नोटबंदी मास्टर स्ट्रोक नहीं थी, बल्कि मोदी ने अपने पाँव में कुल्हाड़ी मारी थी। लाखों मतदाता तो उसी दिन उनके ख़िलाफ़ हो गए थे। मगर शायद कुछ भ्रम बाक़ी था। लोगों को भरमाया गया था कि इससे भ्रष्टाचार कम होगा, लेकिन उन्होंने देख लिया कि ये कोरी बकवास भर थी।

उन्हें ये भी लग रहा था कि मोदीजी ईमानदार हैं। वे सचमुच में सिस्टम की सफ़ाई करना चाहते हैं। मगर अब लोगों का शक़ विश्वास में बदलने लगा है कि दरअसल, नोटबंदी का मक़सद कुछ और ही था। राहुल गाँधी के इस आरोप पर लोग भरोसा करना चाहते हैं कि नोटबंदी एक बड़ा घोटाला थी। एक ऐसा घोटाला जिसमें बहुत सारे भ्रष्टों ने अपना काला धन सफ़ेद कर लिया।

नोटबंदी का अभिशाप सिवाय बड़े उद्योगपतियों और व्यापारियों के सबने भुगता है। बहुतों की नौकरियाँ गईँ, बहुतों को व्यापार-धंधे चौपट हो गए। कुछ ने आत्महत्याओं तक कर लीं। कई सेक्टर तो पूरी तरह से बैठ ही गए, जिसका सीधा असर अर्थव्यवस्था पर पड़ा।

अब इस सबका गुस्सा सरकार को भुगतना पड़ेगा। नोटबंदी नामक तुग़लकी फरमान उसके लिए वाटर लू साबित होगा। जीएसटी ने पहले ही उसके पाँव से ज़मीन खिसका दी थी, अब नोटबंदी की हक़ीक़त सामने आने के बाद अब वह पूरी तरह से हवा में है। मतदाताओं के क्रोध की आँधी उसे उड़ा ले जाएगी।

राजनीति के लिए कहा जाता है कि उसमें चौबीस घंटे भी उलटफेर करने के लिए काफ़ी होते हैं। फिर यहाँ तो मोदी के पास करीब नौ महीने हैं। मगर हालात इतने बिगड़ चुके हैं कि इन नौ महीनों में भी वे शायद कुछ कर पाएंगे। उनके सामने मुश्किल ये है कि अब लोग उन पर भरोसा ही नहीं करेंगे। उनकी लतरानियों और जुमलेबाज़ियों से सब ऊब चुके हैं।




लोग कहने लगे हैं कि ये आदमी बोलता बहुत है करता कुछ नहीं। लोगों की ये धारणा चार साल के उनके तज़ुर्बे का नतीजा है। वे देख रहे हैं कि मोदी इन चार सालों में अपनी चार उपलब्धियाँ भी नहीं गिना सकते। जिन्हें वे उपलब्धियों के तौर पर गिनाते हैं वे जनता की नज़र में अभिशाप बन चुके हैं। ने नोटबंदी लोगों को रास आई है और न ही जीएसटी।

सर्जिकल स्ट्राइक भी फर्जिकल स्ट्राइक साबित हो चुकी है। अर्थव्यवस्था का कबाड़ा वे कर ही चुके हैं। पेट्रोलियम के दाम आसमान छूने लगे हैं और रुपया धराशायी हो चुका है। विदेश नीति में भी उन्हें मुँह की कानी पड़ी है। पड़ोसी देश नाराज़ हैं और अमेरिका भी धमकाने में लगा हुआ है। ऐसे में कोई उन पर भरोसा करे भी तो क्यों? अब लोगों को उनसे कोई उम्मीद नहीं रह गई है।

अगर अभी भी किसी को उम्मीद है तो भक्तों को। उन्हें लगता है कि मोदीजी कोई ऐसा मंतर पढ़ेंगे कि पार्टी चुनाव जीत जाएगी। वैसे उनके आलोचकों को भी लगता है कि वे हिंदू-मुसलमान के बीच ध्रुवीकरण करके चुनाव जीतने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं।




प्रेक्षक मानते है कि संघ परिवार के पास सबसे बड़ा हथियार यही है। उसके पास कोई और राजनीति है ही नहीं। जो दिखाई जाती है वह सिर्फ छलावा है, दिखावा है। यही उसकी विचारधारा है और लक्ष्य भी। ऐसा कर पाने में वह सक्षम भी है। अब तो और भी क्योंकि पुलिस, प्रशासन, सरकार सब कुछ उसके साथ है।

लेकिन इस रास्ते से जीत पाने की चाहत मुल्क को गृहयुद्ध के मुहाने पर खड़ा कर सकती है, उसे बरबाद कर सकती है। देश दशकों पीछे जा सकता है और प्रतिद्वंद्वी देश इस अस्थिरता और मारकाट का फ़ायदा उठा सकते हैं। इसलिए विवेक तो यही कहता है कि राजनीतिक लाभ के लिए देश को गड्ढे मे ढकेलने से पहले दस बार सोचना पडेगा।

वैसे मतदाताओं पर ये अस्त्र चल ही जाएगा ऐसा मानना भी भूल होगी। वह भी बखूबी देख रहा है कि उसे बहलाने और बहकान के लिए कौन से दाँव चले जा रहे हैं। इसलिए मुमकिन है कि वह ऐसी कोशिशों को खुद भी नाकाम कर दे।
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