संघ का एजेंडा, वाजपेयी फार्मूला और मोदी की कश्मीर नीति


जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री मेहबूबा मुफ़्ती चाहती हैं कि मोदी सरकार अटल बिहारी वाजपेयी की कश्मीर नीति को अपनाते हुए कश्मीरियों से संवाद का सिलसिला शुरू करे। उन्हें लगता है कि इससे आहत कश्मीरियों की भावनाओं पर मरहम लगेगा और कश्मीर वापस पटरी पर लौटने लगेगा।

मेहबूबा का सुझाव अच्छा है, मगर इसमें कई पेंच हैं। अव्वल तो वाजपेयी और नरेंद्र मोदी में ज़मीन-आसमान का फर्क है। वाजपेयी का रुख़ ज्यादा मानवीय और उदार था। इसीलिए उन्होंने हिंदुस्तानियत, इंसानियत और कश्मीरियत का जुमला गढ़ा था। वे समस्या को सुलझाने के लिए हदों को तोड़ने का साहस रखते थे। यहां तक कि साझा सरकार होने के बावजूद वे संघ तक से पंगा ले सकते थे।

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हालाँकि इसका ये मतलब भी नहीं है कि वे संघ से अलग थे या संघ का एजेंडा उनका एजेंडा नहीं रहा होगा। मगर कई मौक़ों पर वे उससे नाइत्तफ़ाकी भी ज़ाहिर करते थे और उलट रुख़ भी ले लेते थे। इसके कई उदाहरण मौजूद हैं, लेकिन फिलहाल उनका ज़िक्र ज़रूरी नहीं है।

बस इतना कहना काफी है कि मोदी और संघ एकाकार हो चुके हैं जबकि वाजपेयी गाहे-बगाहे अपनी स्वतंत्र राय भी ज़ाहिर कर देते थे। मोदी ऐसा नहीं कर सकते और अगर करेंगे तो तुरंत उन पर दबाव पड़ने लगेगा। गौ रक्षकों के हिंसक अभियान के मुद्दे पर उन्होंने बोलने का जोखिम उठाया तो उनके ही संगी-साथी बरस पड़े हैं। संभावना यही है कि मोदी अब लंबी चुप्पी धारण कर लेंगे और सब कुछ वैसे ही चलता रहेगा।



वाजपेयी फार्मूले को आज़माने की राह में दूसरा पेंच ये है कि केंद्र में अब बीजेपी की बहुमत की सरकार है और उससे संघ तथा उसके समर्थकों को कहीं ज़्यादा उम्मीदें हैं। उनकी अपेक्षा तो ये है कि वे धारा 370 को ख़त्म कर दें और कश्मीरियों को हमेशा के लिए कुचल डालें। ये तो संभव नहीं है मगर यदि मोदी कश्मीरियों को और अधिकार तथा स्वायत्ता देने की दिशा में क़दम बढ़ाएंगे तो वे उन्हें बिल्कुल नहीं बख्शेंगे।

कश्मीरियों से बातचीत का मतलब है अलगावादियों से भी बातचीत, क्योंकि उसके बिना तो संवाद संभव ही नहीं है। अब अगर मोदी सरकार ऐसा करेगी तो ये उसके लिए बहुत भारी पड़ेगा। उसी के समर्थक उसका मज़ाक उड़ाने लगेंगे कि उसकी कथनी और करनी में फ़र्क है।



इसका दूसरा पहलू ये भी है कि अलगाववादी खेमा मोदी सरकार से बिना शर्त बातचीत के लिए ही तैयार न हो, क्योंकि दोनों के बीच विश्वास की बहुत कमी है। उन्हें लगेगा कि के ये केद्र सरकार की नई चाल है कश्मीरियों का गुस्सा शांत करने की और जैसे ही ऐसा होगा, वह बातचीत को फिर बंद कर देगी। उन्हें अभी ये भी लग रहा है कि कश्मीर समस्या का अंतरराष्ट्रीयकरण हो रहा है और इसका जितना संभव हो लाभ उठाया जाना चाहिए।

सियासी तौर पर भी मोदी एंड कंपनी के लिए अभी ये मुफीद नहीं है कि वह कश्मीर के संदर्भ में उदार रुख़ अख्तियार करे। उसे अभी कई चुनाव में उतरना है, जिसमें उतरप्रदेश का चुनाव तो उसके लिए जीने-मरने के जैसा है। उसे लग रहा है कि वह कश्मीर के बहाने उग्र राष्ट्रवादी भावनाओं को उभार कर मतों का ध्रुवीकरण कर सकती है। लेकिन अगर उसने नरम रवैया अपनाया तो ये मुद्दा भी ठंडा पड़ जाएगा।

ज़ाहिर है कि मेहबूबा दिल्ली में गुहार लगाती रहेंगी, मगर उनकी सुनवाई नहीं होगी। वैसे वे खुद भी ये जानती होंगी, मगर बतीर मुख्यमंत्री उन्हें कुछ करते हुए दिखना है और अपने जनाधार को छीजने से रोकना भी है। हालात बिगड़ने पर केंद्र सरकार को दोषी बताते हुए कुर्सी छोड़ने के लिए बैकग्राउंड भी इसी से तैयार होगी।


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