दलितों की आँख से दुनिया देख पाएगा मीडिया?

बाबा साहब भीमराव आंबेडकर ब्राम्हणवादी विचारधारा वाले राजनीतिक दलों की आवश्यकता और विवशता दोनों बन गए हैं इसलिए अभी तक उपेक्षा करने के बाद वे उन्हें अपना रहे हैं, यहाँ तक कि सिर पर बैठाने के लिए भी तैयार हो गए हैं। कोई आश्चर्य न होगा यदि कल को उन्हें किसी देवता का अवतार ही घोषित कर दिया जाए जैसा कि गौतम बुद्ध को किया गया था। इस राजनीति के मार्ग दर्शन में ही मीडिया भी आंबेडकर को नए सिरे से देखने और प्रस्तुत करने के लिए मजबूर हो रहा है। लेकिन इससे आगे बढ़ना उसके लिए ख़तरनाक़ हो सकता है, क्योंकि तब उसे और भी दलित नायक-नायिकाओं को अपनाना होगा। ज्योति बा फुले, सावित्री फुले, पेरियार जैसी विभूतियों का ब्राम्हणवाद विरोध बेहद तीखा रहा है और वह उनका हाज़मा खराब कर देगा।

Will media be able to see the world with the eye of the Dalits
हाल के वर्षों में दलित बुद्धिजीवियों ने हिंदू मिथकों तथा शास्त्रों को नकारने और अपना इतिहास नए सिरे से गढ़ने का सिलसिला शुरू किया है। वे हिंदू तीज त्यौहारों और मान्यताओं को चुनौती दे रहे हैं और हिंदू इतिहास में खुद को नकारात्मक ढंग से दिखाए जाने से असहमति प्रकट कर रहे हैं। ये एक तरह से ब्राम्हणवाद को सीधी चुनौती है, क्योंकि वह इन्हीं धारणाओं पर तो टिका हुआ है। ज़ाहिर है कि उनमें ज़बर्दस्त छटपटाहट है।
महिषासुर की जयंती मनाए जाने पर जिस तरह का बवाल मचा वह इसका एक उदाहरण भर है। इस प्रकरण ने जितना ब्राम्हणवादी दलों को परेशान किया, उतना ही मीडिया में समानधर्मा पत्रकारों को भी। टीवी चैनलों और अखबारों मे तो ये दिखा ही, मगर सबसे ज़्यादा नज़र आया सोशल मीडिया पर। वहाँ उनकी भाषा गाली-गलौज़ तक पहुँच गई। व्हाट्स ऐप पर घूमने वाले संदेशों में भी ये खूब दिखा। वे अपनी भावनाएं आहत होने की दुहाई दे रहे थे, मगर उन्हें इस बात का ज़रा सा भी एहसास नहीं था कि वे कितनी सदियों से एक विशाल जन समुदाय की भावनाओं से खेल रहे थे, उन्हें आहत कर रहे थे। उनका तंग नज़रिया ये भी सोचने नहीं दे रहा था कि उनके द्वारा कल्पित और रचित इतिहास ही अंतिम नहीं है।

मीडिया के वर्तमान स्वरूप को देखते हुए ये उम्मीद ही नहीं की जा सकती कि वह कभी दलितों की आँख से भी दुनिया देखने की कोशिश करेगा। उसके लिए ये तब तक संभव नहीं है जब तक कि उसके शीर्ष पर दलित दृष्टि वाले लोग बैठें।

-डॉ. मुकेश कुमार-
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