जात पाँत : भेदभाव का आख़िरी बैरिकेड

हमारे देश में जो जाति के चलते है वह दुनिया भर में मनुष्यता के समक्ष ज्ञात और स्वीकृत अंतिम भेदभाव है । रंगभेद के ख़ात्मे के बाद अब यही है जो मनुष्यता के मुँह पर चेचक के दाग़ों की तरह क़ाबिज़ है !
दरअसल इसके बने रहने की सबसे बड़ी वजह यह है कि यह निख़ालिस हिन्दुस्तानी है । इसी भौगोलिक सीमा और इस सीमा से सांसकारित मनुष्यों ने आज इस इक्कीसवीं सदी में भी न सिर्फ इसे कायम रक्खा है वरन इसे कायम रखने की कोशिश भी खुलेआम कायम रक्खी है जबकि रंगभेद का समर्थन कभी खुलेआम न हो सका ! इस लोकलाजेशन के चलते विश्व के अकादमिक हलकों के अलावा ज़्यादातर दुनिया को इस भेदभाव की गंभीरता की कोई जानकारी नहीं है ।
caste system-last barricade of discrimination
आजादी मिलते समय इस सवाल को हल करने का प्रश्न उठा और बाबा साहेब आंबेडकर के चलते क्रान्तिकारी हस्तक्षेप भी हुआ पर उस समय के नेतृत्व की दक्षिणपंथी पृष्ठभूमि पर वामपंथी भाष्य के चलते आंबेडकर के बाद यह उस शिद्दत के साथ जारी न रह सका जिसकी लगातार आवश्यकता थी ।
नतीजा यह हुआ कि विधायिका में तो दलित समाज का प्रतिनिधित्व आ गया पर देश की आर्थिक हलचल में उससे बचने की कोशिशें तेज़ हो गईं । इसमें सबसे प्रमुख औज़ार बना मीडिया !
भारत में १७८० में "बंगाल गजेट" नामके पहले अख़बार को जेम्स आगस्टस हिके ने जन्म दिया था। इसकी नक़ल करते हुए चार पाँच सालों में ही द इंडिया गजेट,द मद्रास कूरियर, द बांबे हेराल्ड आदि निकले ।१८२२ में बांबे समाचार गुजराती में निकला और १८२६ में कोलकाता से पहला हिंदी अख़बार "उदान्त मार्तण्ड "पंडित जुगल किशोर शुक्ला ने निकाला ।

उस समय भारत में आधुनिक शिक्षा पाने के प्रथम अधिकारी वे बने जो नवाबों राजाओं और बादशाह के राजकीय कामों को संभाला करते थे । फ़ारसी जानते थे , अरबी लिपि से परिचित थे और दुभाषिये बन सकते थे । ब्राह्मण कायस्थ और मुसलमान इसमें फ़िट हो सकते थे क्योंकि वे पहले से यह कर रहे थे पर सारे ओबीसी (हिन्दू मुसलमान ) और सारे दलित इसमें से बाहर रह गये । राजपूत भी इक्का दुक्का ही आ पाये क्योंकि वे सैनिक तो हो सकते थे पर बाबूगिरी में प्रवीण न थे ।
जब देश आज़ाद हुआ तो १९५० के एक आँकड़े के अनुसार देश में कुल २१४ दैनिक अख़बार थे जिनमें ४४ अंग्रेज़ी के थे, बहुत तलाशने पर भी मुझे इनमें से कोई दलित/ओबीसी नेतृत्व वाला या दलित/ओबीसी पत्रकार के संपादन वाला न मिला । यानि मीडिया देश की आजादी के समय से ही "सवर्ण" रह गया !
नतीजा यह कि मीडिया दलितों पिछड़ों के प्रति दुराग्रहपूर्ण औज़ार में बदल गया । अंग्रेज़ी के अख़बार अनतरराषट्रीय स्क्रुटिनी के कारण कुछ संतुलन भी रखते थे पर वर्नाकुलर मीडिया में दलित ओ बी सी समाज बहुत पीछे छूटता रहा । 
इसी बेचैनी से उपजे द्रविड़ आन्दोलन , लोहिया के "पिछड़े पावैं सौ में साठ" आदि को समाजी / राजनैतिक स्वीकृति मिल पाने के कारकों के साथ अवरोध के रूप में हमेशा मीडिया के रोल की आलोचना का मूल यह था ।

आजादी के समय देश के राजनैतिक / प्रशासनिक नेतृत्व में ब्राह्मणों के नेतृत्व वाले सवर्ण शिक्षित तबके की पृष्ठभूमि से आये लोगों का बम्पर बहुमत था । चाहे अनचाहे ही उनके इर्द गिर्द का सारा सपोर्टिंग स्टाफ़ उन्हीं की जातिवालों / नाते रिश्तेदारों से पट गया । १९८६ में उत्तर प्रदेश विधानसभा के चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों के एक अध्ययन में मैंने पाया था कि करीब ५६% चपरासी ब्राह्मण थे और बहुमत पहाड़ी (उततराखंड के रहने वाले) लोगों का था । वजह यह थी कि शुरू में लंबे समय तक उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री गोबिन्द बल्लभ पंत रहे और तमाम लोग उनके पैर छूकर चपरासी बन गये । इनके बाद आरक्षित कोटे से दलित आ जाते थे जो ज़्यादातर काम करते थे और सवर्ण चपरासी उनके संगठन बनाकर युनियन्स के नेता हो जाते थे । चपरासियों / बाबुओं की सभी कर्मचारी यूनियनों के नेता ब्राह्मण ठाकुर ही मिलेंगे । ओ बी सी नदारद थे ।

एक समय में बिहार में मिश्र बन्धु उत्तर प्रदेश में तिवारी/ बहुगुणा राजस्थान में हरिदेव जोशी मध्य प्रदेश में शुक्ल बंधु , यानि हिंदी पट्टी में चारों ओर सिर्फ ब्राह्मण ही ब्राह्मण मुख्यमंत्री नज़र आते थे । इन्हे ठाकुरों की चुनौती पेश आती थी पर हाईकमान तक जाकर चुक जाती थी । 
असली चुनौती चौधरी चरण सिंह से शुरू हुई । उत्तर प्रदेश में ओ बी सी किसान जातियों कुरमी यादव के साथ जाट गठजोड़ के ज़रिये चरण सिंह ने विकल्प प्रस्तुत किया । बिहार में करपूरी ठाकुर और बहुत से ओ बी सी नेता प्रतिनिधित्व के लिये उसी समय उदित हुए । हरियाणा में भी जाट सत्ता तक पहुँचे और मंडल कमीशन एक राजनैतिक हथियार बन कर उभरा ।
बाद में वी पी सिंह ने १९९०-९१ में मंडल कमीशन लागू कर देश में आंबेडकर के बाद दूसरा आमूल चूल परिवर्तन का सूत्रपात किया और सवर्ण जातियों के विलेन बने और ठीक एक बरस बाद नरसिंहराव ने टेलिविज़न को प्राइवेटाइज करने का ऐलान कर दिया ।
टेलिविज़न हमारे देश में सरकारी कन्धे पर रामायण और महाभारत के साथ १९८२ में पसरा। दुनिया की सबसे बड़ी वीवऱशिप का रिकार्ड बनाने के साथ साथ इसने जातिवाद / पोंगापंथ/ ब्राह्मणवाद को स्थापित करने वाले इन दो मायोपिकों का पुनर्स्थापन भी कर दिया । 
एक ओर मंडल का असर और मुक़ाबले में अंधविश्वास जातिवाद मायथालौजी जादू टोना पसारता टेलिविज़न ,तब से हिन्दी पट्टी की राजनीति एकदम बदल गई है । यह खलबली अभी सेटल नहीं हो पायी है । न आजादी के बाद और न मंडल के बाद ।
दरअसल एक ईमानदार सुविचारित और सम्पूर्ण कार्यक्रम के अभाव में जातिवाद के निर्मूलन का काम अभी पेंडिंग है । लाभार्थी और लालायित वर्ग की रस्साक़शी इसको अराजकता के दावानल की ओर ढकेल रही है ।

मीडिया अब खुला व्यापार है जो शतप्रतिशत सवर्णो के हाथ है । इस बाबत तमाम रपटों/ शोध से गूगल अटा पड़ा है । क्योंकि देश क्रोनी कैपिटल के नियंताओं ने निगल लिया है तो मीडिया भी उन्हीं का हो लिया । यही वजह है कि सोशल मीडिया पर आज वे आवाज़ें बेसाख़्ता बढ़ चढ़ कर जगह घेर रही हैं जिन्हें "मीडिया" ने ब्लाक किया हुआ है !
लोग कहने ही लगे हैं कि सोशल मीडिया ही नया मास मीडिया है। तकनीक के विस्तार ने हाहाकारी माहौल पैदा कर दिया है ।
यह रक्तपात से हल होगा या बात से यह समय के विवेक पर..........

-शीतल प्रसाद सिंह-

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