राजनीतिक विज्ञापनबाज़ी का सफल प्रयोग


अमरीका और दिल्ली के विगत एक वर्ष में हुए चुनावों में युग का स्वर था – ‘चेंज’, यानी सकारात्मक परिवर्तन। दिलचस्प बात थी कि कैसे यह स्वर एक तरफ ओबामा के विपक्षी चुनाव-संवाद की धुरी बना और दूसरी तरफ सत्ता-विरोधी लहरों से घिरी सत्ताधारी शीला दीक्षित के चुनाव संवाद की धुरी भी।

आएं इस तर्ज पर शीला दीक्षित के चुनाव-संवाद का विश्लेषण करें। 2008-2009 विधानसभा चुनाव के मद्देनजर 2007 के अंत में ही दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने संवाद-रणनीति पर गौर करना शुरू कर दिया था। मुख्यमंत्री के सामने सबसे बड़ी चुनौती थी – सत्ता विरोधी लहरों को पार करना। जनता में सत्ता बदलाव की इस सहज लालसा को ध्यान में रखकर उन्होंने अपनी संवाद-रणनीति बनाई। परिवर्तन की चाहत जैसी बाधा को एक अवसर में बदलना चुनौतीपूर्ण काम था। विज्ञापन की दुनिया के पारंपरिक विवेक को ध्यान में रखते हुए यह तय किया गया कि जनता के दिमाग में दिल्ली के 10 वर्षों में हुई सकारात्मक परिवर्तन की तस्वीरों को डाला जाए, ताकि चुनाव के वक्त इन यादों को भुनाया जा सके। शीला दीक्षित सरकार के प्रयास से हुए परिवर्तनों की तस्वीरों में मुख्य थीं - जन परिवहन (चौड़ी सड़कें, फ्लाई ओवर, अंडरपास, ओवर ब्रिज, मेट्रो, सुविधाजनक हरी और लाल बसें), बिजली की आपूर्ति (डेसू का विलयकरण और बिजली का निजीकरण), पर्यावरण (दिल्ली में दो प्रतिशत से 23 पतिशत की फैलती हरी चादर और सीएनजी से आया अपेक्षाकृत प्रदूषण रहित वातावरण), जल आपूर्ति (सोनिया विहार जल प्लांट), शिक्षा (सरकारी स्कूलों का बेहतरीन रिजल्ट), स्वास्थ्य, लाड़ली, भागीदारी औऱ स्त्री शक्ति जैसी सामाजिक-कल्याणकारी योजनाएं। इन परिवर्तनों को दिल्ली की जनता ने दस वर्षों में इतना नजदीक से देखा था कि वह इन्हें देखकर भी अनभिज्ञ थी। यह उसी तरह की मनोदशा थी जहां अपने बच्चों को बढ़ता देख कर भी आप तब तक अनभिज्ञ रहते हैं जब तक कि कोई आकर आपको बता न दे कि वह वाकई बड़ा हो गया है। दिल्लीवासियों का नजरिया इन परिवर्तनों के प्रति कुछ ऐसा ही था। चुनौती थी कि उनके दिमाग में दिल्ली में हुए मुख्य परिवर्तनों की तस्वीरें कुछ इस तरह डाल दी जाएं कि जिक्र होते ही वे इन परिवर्तनों को अपनी उंगलियों पर गिनवाने लगें। वे तस्वीरें उनके दिमाग के पिछले हिस्से में न हों, उनके आंखों में तैरती दिखें। रणनीति बनी कि चुनाव के पूर्व एक वर्ष में अखबार, रेडियो, टीवी और आउटडोर मीडिया के माध्यम से परिवर्तन की इन तस्वीरो को मतदाताओं के दिमाग में पुरजोर बिठा दी जाए। योजना के तहत यह आवश्यक था कि चुनाव की घोषणा होने के पहले यह तस्वीरें लोगों के मन में समा जाएं, और चुनाव की घोषणा होते ही राजनीतिक विज्ञापन के चरण में जनता के मन में सवाल पैदा किया जाए कि अगर रिवर्तन सार्थक हुआ है तो वे परिवर्तन के सूत्रधार को बदलना चाहेंगे क्या?

योजना को अंजाम देने के लिए विज्ञापन अभियान तैयार किए गए। शुरूआत हुई ‘दिल्ली बदल रही है’ नामक आउटडोर कैंपेन से। लिंटास-पिकल और क्रेयौन नामक विज्ञापन एजेंसीज ने इसे तैयार किया। चार-पांच महीने में ही लोग इन परिवर्तनों की चर्चा करते दिखे। तभी मुख्यमंत्री को सलाह आई कि परिवर्तन एक निष्पक्ष शब्द है औऱ इससे यह बोध नहीं होता कि परिवर्तन सकारात्मक है या नकारात्मक I कापीराइटिंग में बदलाव कर ‘ दिल्ली संवर रही है’ कैंपेन तैयार की गई। धीरे-धीरे यह कैंपेन रंग दिखाने लगी। टाइम्स ऑफ इंडिया ने इस कैंपेन पर खबर बनाई और फिर इस पर मेट्रो नाऊ और मेल टुडे ने विस्तार से चर्चा की। एनडीटीवी के साप्ताहिक कार्यक्रम में इसे विस्तार से दिखाया। विज्ञापन-कैंपेन का यह चढ़ता जादू नशे का आभास देने लगा था कि अचानक जनसत्ता के एक संपादकीय में यह सवाल उठाया गया कि दिल्ली क्या तवायफों का शहर है जो संवर रही है? विज्ञापन कैंपेन एक खतरनाक मोड़ पर खड़ी थी। दिल्ली सरकार का सूचना एवं प्रचार विभाग कैंपेन पर कोई टिप्पणी, वक्तव्य या साक्षात्कार देने से को पीछे हट गया। अनुभव इस खतरे का आभास कराने लगा था कि शोहरत - कैंपेन की हो या इंसान की – आलोचक पैदा करती है। खासतौर पर आलोचक तब और भी मुखर हो जाते हैं जब कैंपेन के पीछे उन्हें कोई चेहरा प्रयासरत दिखे..... कैंपेन की कापी में दलाव लाया गया–‘हर दिन, बदलती तस्वीर, दिल्ली की, मेरे लिए। इन तमाम क्रिएटिव्स में दिल्ली के अलग-अलग वर्गों का प्रतिनिधित्व था। बच्चे, बूढे, युवक-युवतियों, ग्रहणी, मजदूर, मुसलमान और सिख चेहरों में परिवर्तन से आई खुशहाली दिखी। आउटडोर साइट्स के अलावा प्रिंट के पारंपरिक विज्ञापन से आगे बढकर सहज दिखने वाले एडवरटोरियल का प्रयोग किया गया। शीला दीक्षित देश की पहली मुख्यमंत्री थीं जो रेडियो कैंपेन में खुद उतरीं। टीवी स्पाट्स में ब्रांड और प्रोजेक्ट कैंपेन्स बने। इन्हीं मे से ओमपुरी की आवाज में किए गए एक कैंपेन की काफी चर्चा हुई। यह सब करते-करते चुनाव की घोषणा हो गई। योजनागत तरीके से राजनीतिक विज्ञापन गढ़े गए। क्रेयान और जेडब्ल्यूटी नाम की विज्ञापन एजेंसियों ने कमान संभाली। राजनीतिक कैंपेन में कहना शुरू किया गया कि गया कि ‘परिवर्तन की डोर टूटे न’। बीजेपी की भय और निराशा की कैंपेन से जनता कट रही थी । दूसरी तरफ विकास की सूत्रधार शीला दीक्षित का दमकता चेहरा आशा और विश्वास पैदा कर रहा था। भारत में शायद यह पहला प्रयोग था कि सरकारी विज्ञापन और राजनीतिक विज्ञापन में एक रणनीति के तहत सामंजस्य बनाया गया।

राजनीतिक विज्ञापनबाज़ी का पहला सफल प्रयोग -उदय सहाय- अमरीका और दिल्ली के विगत एक वर्ष में हुए चुनावों में युग का स्वर था – ‘चेंज’, यानी सकारात्मक परिवर्तन। दिलचस्प बात थी कि कैसे यह स्वर एक तरफ ओबामा के विपक्षी चुनाव-संवाद की धुरी बना और दूसरी तरफ सत्ता-विरोधी लहरों से घिरी सत्ताधारी शीला दीक्षित के चुनाव संवाद की धुरी भी। आएं इस तर्ज पर शीला दीक्षित के चुनाव-संवाद का विश्लेषण करें। 2008-2009 विधानसभा चुनाव के मद्देनजर 2007 के अंत में ही दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने संवाद-रणनीति पर गौर करना शुरू कर दिया था। मुख्यमंत्री के सामने सबसे बड़ी चुनौती थी – सत्ता विरोधी लहरों को पार करना। जनता में सत्ता बदलाव की इस सहज लालसा को ध्यान में रखकर उन्होंने अपनी संवाद-रणनीति बनाई। परिवर्तन की चाहत जैसी बाधा को एक अवसर में बदलना चुनौतीपूर्ण काम था। विज्ञापन की दुनिया के पारंपरिक विवेक को ध्यान में रखते हुए यह तय किया गया कि जनता के दिमाग में दिल्ली के 10 वर्षों में हुई सकारात्मक परिवर्तन की तस्वीरों को डाला जाए, ताकि चुनाव के वक्त इन यादों को भुनाया जा सके। शीला दीक्षित सरकार के प्रयास से हुए परिवर्तनों की तस्वीरों में मुख्य थीं - जन परिवहन (चौड़ी सड़कें, फ्लाई ओवर, अंडरपास, ओवर ब्रिज, मेट्रो, सुविधाजनक हरी और लाल बसें), बिजली की आपूर्ति (डेसू का विलयकरण और बिजली का निजीकरण), पर्यावरण (दिल्ली में दो प्रतिशत से 23 पतिशत की फैलती हरी चादर और सीएनजी से आया अपेक्षाकृत प्रदूषण रहित वातावरण), जल आपूर्ति (सोनिया विहार जल प्लांट), शिक्षा (सरकारी स्कूलों का बेहतरीन रिजल्ट), स्वास्थ्य, लाड़ली, भागीदारी औऱ स्त्री शक्ति जैसी सामाजिक-कल्याणकारी योजनाएं। इन परिवर्तनों को दिल्ली की जनता ने दस वर्षों में इतना नजदीक से देखा था कि वह इन्हें देखकर भी अनभिज्ञ थी। यह उसी तरह की मनोदशा थी जहां अपने बच्चों को बढ़ता देख कर भी आप तब तक अनभिज्ञ रहते हैं जब तक कि कोई आकर आपको बता न दे कि वह वाकई बड़ा हो गया है। दिल्लीवासियों का नजरिया इन परिवर्तनों के प्रति कुछ ऐसा ही था।

चुनौती थी कि उनके दिमाग में दिल्ली में हुए मुख्य परिवर्तनों की तस्वीरें कुछ इस तरह डाल दी जाएं कि जिक्र होते ही वे इन परिवर्तनों को अपनी उंगलियों पर गिनवाने लगें। वे तस्वीरें उनके दिमाग के पिछले हिस्से में न हों, उनके आंखों में तैरती दिखें। रणनीति बनी कि चुनाव के पूर्व एक वर्ष में अखबार, रेडियो, टीवी और आउटडोर मीडिया के माध्यम से परिवर्तन की इन तस्वीरो को मतदाताओं के दिमाग में पुरजोर बिठा दी जाए। योजना के तहत यह आवश्यक था कि चुनाव की घोषणा होने के पहले यह तस्वीरें लोगों के मन में समा जाएं, और चुनाव की घोषणा होते ही राजनीतिक विज्ञापन के चरण में जनता के मन में सवाल पैदा किया जाए कि अगर परिवर्तन सार्थक हुआ है तो वे परिवर्तन के सूत्रधार को बदलना चाहेंगे क्या? योजना को अंजाम देने के लिए विज्ञापन अभियान तैयार किए गए। शुरूआत हुई ‘दिल्ली बदल रही है’ नामक आउटडोर कैंपेन से। लिंटास-पिकल और क्रेयौन नामक विज्ञापन एजेंसीज ने इसे तैयार किया। चार-पांच महीने में ही लोग इन परिवर्तनों की चर्चा करते दिखे। तभी मुख्यमंत्री को सलाह आई कि परिवर्तन एक निष्पक्ष शब्द है औऱ इससे यह बोध नहीं होता कि परिवर्तन सकारात्मक है या नकारात्मक I कापीराइटिंग में बदलाव कर ‘ दिल्ली संवर रही है’ कैंपेन तैयार की गई। धीरे-धीरे यह कैंपेन रंग दिखाने लगी। टाइम्स ऑफ इंडिया ने इस कैंपेन पर खबर बनाई और फिर इस पर मेट्रो नाऊ और मेल टुडे ने विस्तार से चर्चा की। एनडीटीवी के साप्ताहिक कार्यक्रम में इसे विस्तार से दिखाया। विज्ञापन-कैंपेन का यह चढ़ता जादू नशे का आभास देने लगा था कि अचानक जनसत्ता के एक संपादकीय में यह सवाल उठाया गया कि दिल्ली क्या तवायफों का शहर है जो संवर रही है? विज्ञापन कैंपेन एक खतरनाक मोड़ पर खड़ी थी। दिल्ली सरकार का सूचना एवं प्रचार विभाग कैंपेन पर कोई टिप्पणी, वक्तव्य या साक्षात्कार देने से को पीछे हट गया। अनुभव इस खतरे का आभास कराने लगा था कि शोहरत - कैंपेन की हो या इंसान की – आलोचक पैदा करती है। खासतौर पर आलोचक तब और भी मुखर हो जाते हैं जब कैंपेन के पीछे उन्हें कोई चेहरा प्रयासरत दिखे..... कैंपेन की कापी में दलाव लाया गया–‘हर दिन, बदलती तस्वीर, दिल्ली की, मेरे लिए। इन तमाम क्रिएटिव्स में दिल्ली के अलग-अलग वर्गों का प्रतिनिधित्व था। बच्चे, बूढे, युवक-युवतियों, ग्रहणी, मजदूर, मुसलमान और सिख चेहरों में परिवर्तन से आई खुशहाली दिखी। आउटडोर साइट्स के अलावा प्रिंट के पारंपरिक विज्ञापन से आगे बढकर सहज दिखने वाले एडवरटोरियल का प्रयोग किया गया। शीला दीक्षित देश की पहली मुख्यमंत्री थीं जो रेडियो कैंपेन में खुद उतरीं। टीवी स्पाट्स में ब्रांड और प्रोजेक्ट कैंपेन्स बने। इन्हीं मे से ओमपुरी की आवाज में किए गए एक कैंपेन की काफी चर्चा हुई। यह सब करते-करते चुनाव की घोषणा हो गई। योजनागत तरीके से राजनीतिक विज्ञापन गढ़े गए। क्रेयान और जेडब्ल्यूटी नाम की विज्ञापन एजेंसियों ने कमान संभाली। राजनीतिक कैंपेन में कहना शुरू किया गया कि गया कि ‘परिवर्तन की डोर टूटे न’। बीजेपी की भय और निराशा की कैंपेन से जनता कट रही थी । दूसरी तरफ विकास की सूत्रधार शीला दीक्षित का दमकता चेहरा आशा और विश्वास पैदा कर रहा था। भारत में शायद यह पहला प्रयोग था कि सरकारी विज्ञापन और राजनीतिक विज्ञापन में एक रणनीति के तहत सामंजस्य बनाया गया।
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